________________ भी लज्जा नहीं आई ? प्रत्यक्ष में तो क्या, ऐसा तो स्वप्न में भी नहीं हो सकता, यह हुआ झूठ। . अपयश-मद्यपायी मनुष्यों का सभ्य संसार में कितना अपयश होता है ? यह बात प्रसिद्ध ही है और फिर उसमें साधु के अपयश का कहना ही क्या ? भला जिसका जीवन सब से पवित्र माना जाए और वह ऐसा काम करे। ऐसे का अपयश नहीं हो तो फिर किस का हो ? अतृप्तिअतृप्ति का अर्थ होता है-'अभिप्रेत वस्तु के न मिलने से होने वाला अनिर्वाण-दुःख'। फिर साधु का वेष ठहरा। ऐसी गन्दी वस्तु, जब मन चाहे तब नहीं मिल सकती, किसी निजी अन्तरङ्ग मित्र के द्वारा ही कभी-कभी अवसर लगता है। अतः जब मद्य नहीं मिलेगा तब साधु को बहुत अधिक दुःख उठाना पड़ेगा। मद्य-प्रेमी का शरीर उस'काही-घोड़े के समान हो जाता है, जो जब तक चाबुक की मार पड़ती रहती है, तब तक तो चलता रहता है और जहाँ चाबुक की मार बंद हुई, झट खड़ा हो जाता है। असाधुता-संक्षिप्त में कहने का सार यह है कि, मद्यपान से यदि कोई वस्तु बढ़ती है तो वह असाधुता ही बढ़ती रहती है। जहाँ असाधुता की वृद्धि होती है, वहाँ बेचारी साधुता का रहना कैसे हो सकता है ! साधुता और असाधुता का तो परस्पर दिन-रात जैसा स्थायी वैर है और जब साधु की साधुता नष्ट हो गई तो समझो साधु का सर्वस्व ही नष्ट हो गया / साधु के पास सिवा साधुता के और रखा ही क्या है ? जिसके बल पर वह 'हुँ' कार का / दम भर सके। उपर्युक्त आसक्तता, माया, मृषा आदि दुर्गुणों की ओर लक्ष्य रखते हुए संयमी को मद्य से सर्वथा अलग रहना चाहिए। साधु वही है जो मादक द्रव्यों के पान को विषपान के समान समझता है, जिसको इनके नाम से भी घृणा आती है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, मद्यप-साधु की अन्तिम समय में संवरा-राधना का निषेध कहते हैं निच्चुव्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसो मरणंतेवि, न आराहेइ संवरं॥४१॥ नित्योद्विग्नो यथास्तेनः, आत्मकर्मभिर्दुर्मतिः , / तादृशो मरणान्तेऽपि, नाराधयति संवरम्॥४१॥ पदार्थान्वयः- जहा-जैसे तेणो-चोर निच्चुव्विग्गो-सदा उद्विग्न (घबराया) हुआ रहता है ठीक वेसै ही दुम्मई-दुर्बुद्धि साधु अत्तकम्मेहि-अपने दुष्ट कर्मों से सदा उद्विग्न रहता है तारिसो-ऐसा दुष्कर्म कारक मद्यप साधु मरणंतेवि-मरणांत दशा में भी संवरं-संवर की नाराहेइआराधना नहीं कर सकता। मूलार्थ- मद्यपायी दुर्बुद्धि-साधु, अपने किए कुकर्मों से चोर के समान सदा उद्विग्न (अशान्त चित्त) रहता है। वह अन्तिम समय पर भी संवर-चारित्र की आराधना नहीं कर सकता। टीका-जिस प्रकार चोर का चित्त सदैव उद्विग्न (अशान्त) बना रहता है, ठीक उसी प्रकार मदिरा-पान करने वाले भिक्षु का चित्त भी सदा अशान्त बना रहता है तथा वह अपने कर्मों 202] दशवकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्