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________________ हैं जो चोरी करता हो। फिर यहाँ सूत्र में मद्य पीने वाले को चोर किस अभिप्राय से कहा ? तब उससे कहना चाहिए कि, निस्सन्देह चोरी करने वाले को ही चोर कहते हैं, किसी दूसरे को नहीं। परन्तु मद्य पीने वाला भी तो चोरी ही करता है, कुछ साह्कारी नहीं ? श्री भगवान ने साधुओं को मद्य पीने का सर्वथा निषेध किया है। अतः साधुवेष पहनकर, भगवदाज्ञा तोड़ने से, अन्य कदाचारी पुरुषों के कथन को मानने से एवं लोगों को धोखे में डालकर स्वार्थ साधने से, मद्यपायी साधु को यदि चोर-शिरोमणी भी कहा जाए तो कुछ भी झूठ नहीं, क्योंकि चोर का लक्षण पूर्णतया चरितार्थ है 'न मे कोइ वियाणइ।' ___ उत्थानिका- अब सूत्रकार, मद्यपायी के लोलुपता आदि दुर्गुणों के विषय में कहते हैंवड्ढई सुंडिआ तस्स, मायामोसंच भिक्खुणो। अयसो अ अनिव्वाणं, सययं च असाहुआ॥४०॥ वर्धते शोण्डिका तस्य, माया मृषा च भिक्षोः। अयशश्च अनिर्वाणं, सततं च असाधुता॥४०॥ पदार्थान्वयः-तस्स-उस मदिरा पीने वाले भिक्खुणो-भिक्षु की सुंडिआ-आसक्तपना वड्ढई-बढ़ जाती है मायामोसं च-माया तथा मृषावाद भी बढ़ जाता है तथा अयसो अ-उसका अपयश भी सर्वत्र फैल जाता है च-फिर सतत मदिरापान के प्रभाव से अनिव्वाणं-अतृप्ति की भी वृद्धि हो जाती है। किं बहुना, मद्य-पायी की सययं-निरंतर असाहुआ-असाधुता ही बढ़ती रहती - मूलार्थ-मद्यपाती साधु के लोलुपता, छल, कपट, झूठ, अपयश और अतृप्ति आदि दोष बढ़ते जाते हैं अर्थात् उसकी निरंतर असाधुता ही असाधुता बढ़ती रहती है, साधुता का तो नाम भी नहीं रहता। .. टीका- मद्य, समस्त दुर्गुणों का आश्रय-दाता है। ऐसा कौन-सा दुर्गुण है, जो मद्यपायी में नहीं आता। जिन सज्जनों की इच्छा सब दुर्गुणों को एक ही स्थान पर देखने की हो, वे मद्यपायी में देखें, सूत्रकार उन्हें मद्यपायी में दिखलाते हैं- आसक्तया-मद्य पीने से प्रति दिन आसक्ति बढ़ती ही रहती है, घटती नहीं। मद्यप साधु तो मद्य-पान की लालसा मिटाने के लिए यह चाहता है कि, किसी न किसी प्रकार से मद्य बढ़ा चढ़ाकर मैं अपनी तृप्ति करूँ / परन्तु होता क्या है ? विपरीत। लालसा, शान्त होने की अपेक्षा उल्टी भयंकर रूप धारण करती चली जाती है। धधकती हुई अग्नि में ज्यों-ज्यों घास फूस पड़ती जाएगी, त्यों-त्यों ही वह अधिकाधिक भीषण रूप पकड़ती चली जाएगी। अग्नि शान्त तभी हो सकती है, जब कि उसमें फूस न डाला जाए। माया, मृषा- मद्यप साधु वञ्चकता और झूठ का दोष भी पूरा-पूरा लगाता है, क्योंकि सामाजिक भय से प्रत्यक्ष में तो मद्य पी नहीं सकता, अतःकहीं लुक-छिपकर सौ प्रपंच लगाकर यह काम करना होता है। इसलिए यह तो हुई माया और दूसरे मद्यपान के पश्चात् होने वाली क्रियाओं से आशंकित लोगों के यह पूछने पर कि, क्या तुम मद्य पीते हो? तब वह यही कहता है कि, क्या कहा मद्य ? इसका नाम भी न लो। मैं साधु, और फिर मद्य पीऊँ ? तुम्हें कहते हुए पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [201
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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