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________________ रखने के लिए किया है। 'अन्य' शब्द देकर टीकाकार स्पष्टतः कह रहे हैं कि, ऐसा दूसरे लोग मानते हैं हम नहीं। हमें तो बिना किसी अपवाद के एक रूप से ही सर्वथा प्रतिषेध करना अभीष्ट है। देखिए, सर्वथा प्रतिषेध में स्वयं टीकाकार के वाक्य अनेन' सर्वथा प्रतिषेध उक्तः सदा साक्षिभावात् ' / इस गाथा में मद्यपान का सर्वथा निषेध किया है, क्योंकि इस परित्याग में भगवान् की सदा साक्षी है। अतः युक्ति-युक्त सिद्ध हुआ कि, अन्य आचार्यों का यह अपवाद विषयक कथन सूत्र-सम्मत न होने से किसी भी अंश में प्रामाणिक नहीं है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, मद्यपान के दोष बतलाते हैंपियए एगओ तेणो, न मे कोइ वियाणइ। तस्स पस्सह दोसाइं, नियडिंच सुणेह मे॥३९॥ पिबति एककः स्तेनः, न मां कोऽपि विजानाति। . तस्य पश्यत दोषान्, निकृतिं च शृणुत मम्॥३९॥ पदार्थान्वयः- एगओ-धर्म से रहित या एकान्तस्थान में तेणो-भगवद्-आज्ञा-लोपक चोर साधु पियए-मद्य पीता है और मन में यह विचारता है कि, मैं यहाँ ऐसा छिपा हुआ हूँ मे-मुझे कोइ-कोई भी न वियाणइ-नहीं जानता-नहीं देखता, अस्तु हे शिष्यो ! तुम स्वयं तस्स-उस मद्यपायी के दोसाइं-दोषों को पस्सह-देखो च-और उसकी नियडिं-मायारूप-निकृति को मे-मेरे से सुणेह-सुनो। मूलार्थ- गुरु कहते हैं, हे शिष्यो ! जो साधु धर्म से विमुख होकर, एकान्त स्थान में छिपकर मद्यपान करता है और समझता है कि, मुझे यहाँ छिपे हुए को कौन देखता है, वह भगवदाज्ञा का लोपक होने से पक्का चोर है। उस मायाचारी के प्रत्यक्ष दोषों को तुम स्वयं देखो और अदृष्ट-मायारूप दोषों को मुझ से श्रवण करो। टीका-गुरु श्री शिष्यों को धर्मोपदेश करते हुए धर्म-भ्रष्ट, मद्यपायी साधु के विषय में कहते हैं, ये शिष्यो ! वही साधु मद्यपान करता है , जो सदा धर्म रूपी हितैषी मित्र का साथ छोड़ देता है और उसके विरूद्ध हो जाता है। जब तक धर्म मित्र का साथ बना रहता है तब तक तो साध से किसी भी काल में ऐसे निन्दनीय दष्कत्य नहीं हो सकते। अतः धर्म से विमख होना बड़ा ही बुरा है। धर्म से विमुख होना मानो अपने अस्तित्व से विमुख होना है। अस्तु, ऐसा धर्म विमुख-नाम धारी-साधु, मद्यपानार्थ एकान्त (गुप्तस्थान) में छिपा हुआ यह विचार किया करता है कि मद्यपान में और कुछ डर तो है ही नहीं, हाँ; डर है तो एक अपयश का ही है। तो मैं ऐसे गुप्तस्थान में हूँ कि मुझे कोई भी नहीं देख सकता। जब लोग देखेंगे तभी तो अपयश होगा, वैसे तो होने को रहा। इस प्रकार से भ्रमित-विचार से मद्य पीने वाले साधु की चोर संज्ञा है। इसलिए इस चोर बुद्धि वाले मायावी-साधु के सभी निन्दनीय दोषों को हे धर्मप्रिय शिष्यो ! तुम स्वयं देखो, विचारो और उसकी छल-क्रिया आदि का वर्णन मुझ से सुनो। ___यदि कोई कहे कि मद्य पीने वाले को 'मद्यप' कहते हैं, चोर नहीं। चोर तो उसे कहते 200] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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