________________ सुरं वा मेरगं वावि, अन्नं वा मज्जगं रसं। . ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसंसारक्खमप्पणो॥३८॥ सुरां वा मेरकं वाऽपि, अन्यं वा मद्यकं रसम्। ससाक्षि न पिबेद् भिक्षुः, यशः संरक्षन्नात्मनः॥३८॥ पदार्थान्वयः-भिक्खू-साधु अप्पणो-अपने जसं-संयम की सारक्खं-रक्षा करता हुआ ससक्खं-जिसके परित्याग में, केवली भगवान् साक्षी हैं ऐसी सुरं-पिष्ट आदि से तैयार की गई मदिरा वा-अथवा मेरगं-प्रसन्नाख्य मदिरा वि-अपि शब्द से नाना प्रकार की मदिराएँ तथा अन्नं वासुरा प्रायोग्य द्रव्य से उत्पन्न मज्जगं रसं-मादक रस आदि इन सब को न पिबे-नहीं पीए। मूलार्थ- आत्म-संयमी साधु अपने संयम रूप विमल यश की रक्षा करता हुआ, जिसके त्याग में सर्वज्ञ भगवान् साक्षी हैं ऐसे सुरा, मेरक आदि नाना विध मादक द्रव्यों का सेवन (पान) न करे। . टीका-साधु को यदि अपने संयम की, विमल यश की सर्वथा रक्षा करनी है तो उसे मादक द्रव्यों का सेवन कभी नहीं करना चाहिए। क्योंकि, संयम ग्रहण करते समय सर्वज्ञ भगवान् की साक्षी से मादक द्रव्यों के सेवन का सर्वथा परित्याग किया जाता है। सर्वज्ञ भगवान् त्रिकालदर्शी हैं। अत:जिसके सामने पहले तो छाती तानकर प्रतिज्ञा करना और फिर उसी के सामने प्रतिज्ञा का भंग करना-कितना पशुता का कार्य है ? क्या ऐसे भी अपने को मनुष्य कह सकते हैं ? मनुष्य वही है-जिसके हृदय में अपनी बात की लज्जा है तथा मादक द्रव्यों का इस लिए भी सेवन नहीं करना चाहिए कि, वीतरागी केवल-ज्ञानी भगवन्तों ने मादक द्रव्य के सेवन का पूरा-पूरा प्रतिषेध किया है। महान् ज्ञानी पुरुषों द्वारा प्रतिषिद्ध वस्तु के सेवन करने का अर्थ होता है कि उन प्रतिषेधक पुरुषों का अपमान करना। सैनिक का कर्तव्य होता है कि, वह अपने चतुर सेना नायक की सम्पूर्ण आज्ञाओं का पालन करे। यह नहीं कि, कुछ का तो पालन करे और कुछ का नहीं। साधु भी धर्म-युद्ध का एक सैनिक है। अतः उसे भी अपने सेनापति रूप, पथप्रदर्शकं महापुरुषों की सभी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए। यह कौन-सी बात है कि, अन्य तो पालन करता रहे और मादक-द्रव्य-प्रतिषेध की आज्ञा को मनमानी नीति से नष्ट-भ्रष्ट करता रहे। जो सैनिक सेनापति की एक भी आज्ञा की अवहेलना करता है, उसका जीवन कष्टमय है। यह ध्रुव-धारणा प्रत्येक सैनिक के हृदय में निश्चय के वज्र-लेख से अङ्कित रहनी चाहिए। मादक द्रव्य के प्रतिषेध में टीकाकार भी यही कहते हैं, 'ससाक्षिकं-सदा परित्यागसाक्षिकेवलिप्रतिषिद्धं न पिबेद्भिक्षुः'। टीकाकार आगे चलकर इस सूत्र की व्याख्या के अन्त में ऐसा भी लिखते हैं कि, यह सूत्र ग्लानापवाद विषयक है, ऐसा अन्य आचार्य मानते हैं। तथा च पाठः-"अन्येतु ग्लानपवादविषयमेतत्सूत्र-मल्पसागारिकविधानेन व्याचक्षते।" परन्तु अन्य आचार्यों का यह कथन सर्वथा विपरीत होने से सूत्र संगत नहीं है, अतः मान्य नहीं हो सकता। सूत्रकार के शब्दों से इस अपवाद की कहीं भी ध्वनि नहीं निकलती। टीकाकार हरिभद्र सूरि भी, अन्य आचार्यों के इस विपरीत मत से किंचित् भी सहमत नहीं हैं। उन्होंने जो यहाँ अपनी टीका में इस मत का उल्लेख किया है, वह अपने टीकाकार के पद को अक्षुण्ण बनाए पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 199 आज्ञ