________________ को देखकर यही विचार करेंगे कि देखो, यह कैसा मोक्षार्थी उत्कृष्ट साधु है ? लालच और रसलोलुपता का तो इसमें नाम नहीं। रूखा-सूखा, ठंडा-बासी, जैसा कुछ मिल जाता है, वैसा ही ले लेता है ? और अपने आनन्द के साथ संतोष वृत्ति से खा लेता है। सरस आहार की इच्छा से जहाँ-तहाँ अधिक भ्रमण करना तो यह जानता ही नहीं। वास्तव में संयम वृत्ति यही है। चाहे लाभ हो या हानि पर इसका समभाव कभी भंग नहीं होता। ऐसी ही आत्माएँ संसार में आने का कुछ लाभ प्राप्त कर लेती हैं। धन्य हैं ऐसे महापुरुष ! और ऐसी आत्माएँ ! - उपर्युक्त विचार, छल से युक्त और संयम से सर्वथा विरूद्ध हैं। अतः ऐसा कुत्सित विचारक साधु संसार में अपनी उन्नति कभी नहीं कर सकता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार ऐसा करने वाला किस पाप कर्म का बंध करता है ?' करते हैं पूयणट्ठा जसो कामी, माणसम्माणकामए। बहुं पसवई पावं, मायासल्लंच कुव्वइ॥३७॥ .. पूजनार्थी यशस्कामी, मानसम्मानकामुकः / बहु प्रसूते पापं, मायाशल्यं च करोति॥३७॥ __ पदार्थान्वयः- यह पूयणट्ठा-पूजा का चाहने वाला जसोकामी-यश का चाहने वाला तथा माणसम्माणकामए-मान सम्मान का चाहने वाला साधु बहुं-पावं-बहुत पाप कर्मों को पसवई-उत्पन्न करता है च-तथा मायासलं-माया रूपी शल्य भी कुव्वइ-करता है। मूलार्थ- पूजा, यश और मान-सम्मान की झूठी कामना करने वाला पूर्व सूत्रोक्त क्रिया-कारक साधु; अत्यंत भयंकर पापकर्मों को तथा मायारूपी शल्य को समुत्पन्न करता है। टीका-इस गाथा में इस बात का वर्णन है कि, साधु , पूर्वोक्त छल रूप जो क्रियाएँ करता है, वह अपने मन में यही समझ कर करता है कि, इससे मेरी स्वपक्ष में तथा पर पक्ष में सामान्य रूप से पूजा प्रतिष्ठा हो जाएगी। लोग कहेंगे कि, आश्चर्य है ? यह साधु, कैसी कठिन क्रियाएँ कर रहा है। शरीर को मिट्टी कर रक्खा है ? इस प्रकार सुयश में परिवृद्धि होकर मेरा वन्दना अभ्युत्थान रूप मान और वस्त्र पाक्षादि सत्कार रूप सम्मान भी बढ़ेगा। इन उपर्युक्त कलुषित इच्छाएँ करने वाला संयमी, प्रधान संक्लेश योग से अत्यंत भारी पाप कर्मों का बंधन कर लेता है। इतना ही नहीं, वह उस माया रूप शल्य को भी कर लेता है। जिसके होने से जीव अनंत काल पर्यंत संसार चक्र में इधर से उधर गेंद की तरह मारा-मारा घूमता रहता है और वास्तविक स्थान-मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मोक्षाभिलाषी मुनियों का कर्तव्य है, कि वे उक्त छल प्रपंच की क्रिया न करें। यदि कभी प्रमाद वश करने में आ गई हो तो गुरुओं के समक्ष उसकी स्पष्टता से सम्यगालोचना करके आत्म-विशुद्धि करें। इसी में सच्ची साधुता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, मद्यपान का निषेध करते हैं 198] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्