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________________ टीका-साधु संघ एक समुद्र है। इस में भाँति-भाँति की मनोवृत्ति वाले साधु होते हैं। कोई अच्छा होता है तो कोई बुरा / कोई लालची होता है तो कोई सन्तोषी। बात यह है कि, अच्छों के साथ बुरे भी होते हैं / यद्यपि सूत्रकार ने उसी मनुष्य को साधु बनने के लिए लिखा है जो भद्र हो, सन्तोषी हो और सभी तरह पवित्र हो। फिर भी सर्वज्ञता के अभाव से, पवित्र साधु संघ में अपवित्र-पतित आत्माएँ, जैसे-तैसे आकर घुस ही जाती हैं। ऐसी पतित आत्माओं को शिक्षा देने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि, भिक्षा के लिए गाँव में गए हुए किसी क्षुद्र बुद्धि साधु को, भाँति-भाँति के सरस-नीरस भोजन पदार्थ मिले। सरस पदार्थ को देखते ही साधु के मुँह में पानी भर आता है और विचार करता है कि, यदि मैं यह सब आहार उपाश्रय में गुरु के समीप ले गया तो संभव है कि यह सरस पदार्थ मुझे मिले या न मिले, नहीं मिलेगा तो मैं क्या करूँगा ? अतः यही अच्छा है कि मैं अच्छे-अच्छे पदार्थ यहीं खा लूँ और बचा हुआ विवर्ण (रूप रंग रहित) और विरस (स्वादुतारहित) भोजन उपाश्रय में ले चलूँ। इस विचार को कार्य रूप में परिणत करने वाला अर्थात् अच्छे-अच्छे पदार्थ कहीं खाकर बुरे-बुरे पदार्थ उपाश्रय में लाने वाला साधु , ऐसा क्यों करता है और उसकी क्या अवस्था होती है ? यह अग्रिम सूत्रों में सूत्रकार स्वयं वर्णन करेंगे। सूत्र में 'भद्दगं भद्दगं''भद्रकं भद्रकं' शब्द लिखा है, उसका स्पष्ट भाव यह है कि, वे पदार्थ जो सब प्रकार से भद्र हैं अर्थात् कल्याणकारी और बलवर्द्धक हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'वह इस प्रकार क्यों करता है'? यह कहते हैंजाणंतु ताइमे समणा, आययट्ठी अयं मुणी। संतुट्ठो सेवए पंतं, लूहवित्ती सुतोसओ॥३६॥ जानन्तु तावदिमे श्रमणा, आयतार्थी अयं मुनिः। सन्तुष्टः सेवते प्रान्तं, रूक्षवृत्तिः सुतोष्यः॥३६॥ पदार्थान्वयः-इमे-ये उपाश्रयस्थ समणा-साधु तु-निश्चय ही ता-प्रथम जाणतुमुझे जाने कि अयं-यह मुणी-मुनि संतुट्ठो-संतोष वृत्ति वाला है, इतना ही नहीं, किन्तु सुतोसओअन्त प्रान्त आहार के मिलने पर भी बड़ा ही सन्तोष वाला है तथा लूहवित्ती-रूक्षवृत्ति वाला भी है, जो पंतं-इस प्रकार के असार पदार्थों का सेवए-सेवन करता है इसलिए आययट्ठी-यह मुनि सच्चा मोक्षार्थी है। __मूलार्थ-यह रस लम्पटी साधु, ऐसे भाव रखता है कि 'ये अन्य उपाश्रयी साधु मुझे प्रतिष्ठा की दृष्टि से यह जाने कि, यह साधु कैसा संतोषी और मोक्षार्थी है ? जो इस प्रकार के रूखे-सूखे असार पदार्थों पर ही संतोष कर लेता है। जैसा मिल जाता है वैसा ही खा पीकर सन्तुष्ट हो जाता है, सार-असार का तो कभी मन में विचार ही नहीं लाता। क्यों न हो, अपनी संयमी क्रियाओं में पूर्ण रूप से तत्पर है।' टीका-वह मार्ग में ही अच्छे-अच्छे सरस पदार्थ खाने वाला पूर्वोक्त साधु , लालच में प्रतिष्ठा के भाव रखता हुआ यह विचार करता है कि, क्या ही अच्छा काम बना है। स्वाद का स्वाद ले लिया और संतोषी के संतोषी बने रहे। ये उपाश्रयी साधु मेरे इस अवशिष्ट नीरस आहार पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 197
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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