________________ मूलार्थ-जिसे केवल अपना ही पेट भरना आता है, ऐसा पूर्व सूत्रोक्त रसलोलुप साधु बहुत अधिक पापकर्म को करता है। यही नहीं, अपितु वह असन्तोषी, निर्वाण पद भी नहीं प्राप्त कर सकता है। टीका- इस गाथा में पूर्व सूत्रोक्त पाप कर्म करने वाले साधु के दोनों लोको में निम्नलिखित दोष बतलाए हैं जो साधु जिह्वा लोभ केवशीभूत होकर सरस आहार को छिपाने की चेष्टा करता है, वह साधु साधु नहीं, असाधु शिरोमणि है। वह केवल अपना ही पेट भरने का ध्यान रखता है। दूसरे गुरुजनों के विषय में उसे कुछ भी भक्ति भावना नहीं है। ऐसा लालची साधु, थोड़े से भोजन सुख के कारण अनंत संसार में तीव्र पाप कर्म का बंधन कर लेता है। जिससे फिर वह चिरकाल तक नाना प्रकार के एक से एक दुःख भोगता है, क्योंकि जिह्वा के वशीभूत साधु , चाहे जैसी कठिन से कठिन क्रियाएँ करे, पर क्रियाओं का फल जो मोक्ष है, वह उसे नहीं मिलता। ___ यह ऊपर पारलौकिक दोषों का कथन है। इस लोक का दोष यह है कि ऐसा रस लम्पटी साधु, कदापि धैर्यवान् नहीं हो सकता। भला जो एक भोजन जैसी साधारण वस्तु पर मूछित होकर विकल हो जाता है, वह कैसे अन्य संकटों के समय दृढ़ रह सकेगा। ऐसी आत्माएँ तो बस गिरती-गिरती अन्त में गिर ही जाती हैं। इनके उद्धार का काम फिर बड़ा ही कठिन हो जाता है। दुःख है कि ऐसे क्षुद्र मनोवृत्ति वाले मनुष्य नामधारी सज्जन काम पड़ने पर जीभ के लिए बड़े से बड़े अकृत्य करने को सहसा उद्यत हो जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है . कि, उन्नति की आशा रखने वाले साधुओं का यह कर्त्तव्य है कि, वे अपने आपको गिराने वालीप्रस्तुत सूत्रोक्त जैसी प्रारम्भ में नगण्य लगने वाली और. अन्त में सर्वनाश का भयंकर दृश्य दिखाने वाली बातों पर पूरा-पूरा ध्यान दें। ऐसी बातों पर उपेक्षा के भाव रखने से सच्ची साधुता स्थिर नहीं हो सकती। उत्थानिका- अब सूत्रकार परोक्ष चोरी करने वाले अर्थात् सरस आहार को मार्ग में खा लेने वाले साधुओं का वर्णन करते हैंसिआ एगइओ लद्धं विविहं पाणभोयणं। भद्दगं भद्दगं भोच्चा, विवन्नं विरसमाहरे॥३५॥ स्यादेककिको लब्ध्वा, विविधं पान भोजनम्। . भद्रकं भद्रकं भुक्तवा, विवर्णं विरसमाहरेत्॥३५॥. __ पदार्थान्वयः- सिआ-कदाचित् एगइओ-कोई एक साधु विविहं-नाना प्रकार के पाणभोयणं-अन्न और पानी को ल-प्राप्त कर भद्दगं भद्दगं-अच्छा-अच्छा भोच्चा-खाकर विवन्नं-वर्ण रहित एवं विरसं-रस रहित निकृष्ट आहार आहरे-उपाश्रय में ले आए। मूलार्थ-कोई विचार मूढ़ साधु ऐसा भी करता है कि, भिक्षा में नाना प्रकार का भोजन-पानी मिलने पर अच्छे-अच्छे सरस पदार्थ तो वहीं कहीं इधर-उधर बैठ कर खा पी लेता है और अवशिष्ट विवर्ण एवं विरस आहार उपाश्रय में लाता है। 196] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्