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________________ स्यादेककिको लब्ध्वा, लोभेन विनिगूहते। मा ममेदं दर्शितंसत्, दृष्ट्वा स्वयमादद्यात्॥३३॥ पदार्थान्वयः-सिआ-कदाचित् एगइओ-कोई एक जघन्य साधु लद्धं-सरस आहार प्राप्त करके लोभेण-लोभ से विणिगूहइ-नीरस आहार के द्वारा सरस आहार को ढाँपता है; क्योंकि वह विचार करता है कि मेयं-यह मुझे मिला हुआ आहार यदि दाइअंसंतं-गुरु को दिखाया गया तो गुरु दगुणं-देख कर मा सयमायए-ऐसा न हो कि स्वयं ही ले लें और मुझे न दे।। ___ मूलार्थ-वह पूरा जघन्य साधु है, जो 'यदि यह आहार गुरु श्री देख लेंगे तो स्वयं ही ले लेंगे मुझे न देंगे' इस लोभ पूर्ण घृणित विचार से प्राप्त हुए सरस आहार को नीरस आहार से ढाँपता है। टीका- कोई साधु भिक्षा के लिए गाँव में गया। वहाँ फिरते हुए किसी घर से उसे सरस और सुन्दर भोजन मिला। तब वह रस-लोलुपी लोभी साधु उस सरस आहार को चारों ओर नीरस आहार से ढाँप लेता है और मन में यह विचार करता है कि, यह आहार प्रत्यक्ष रूप में और बड़े कठिन परिश्रम से मुझे मिला है। यदि गुरु जी इसे देख लेंगे तो संभव है सब का सब स्वयं ही ले लें और मुझे कुछ भी न दें। सब कुछ कर करा कर अन्त में मैं मुँह देखता ही रह जाऊँ। अतः मुझे किसी रीति से इस आहार को छुपाना ही श्रेयस्कर है। परन्तु उपर्युक्त रीति से आहार के छिपाने का काम माया-वृत्ति में प्रविष्ट है। अतः आत्मोन्नति की अभिलाषा रखने वाले, मुनियों का कर्तव्य है कि, वे कभी भी ऐसा जघन्य कार्य न करें। यदि यहाँ पर कोई आशङ्का करे कि, क्या सभी साधु ऐसा करते हैं, जो इस बात का सूत्रकार ने मुख्य रूप से उल्लेख किया है ? उत्तर में कहना है कि सभी साधु ऐसा नहीं करते। कोई अत्यन्त जघन्य भावों वाला ही ऐसा * कार्य करता है। इसी लिए सूत्रकार ने 'एगइओ' यह पद दिया है जिसका अर्थ होता है 'कोई एक'। सर्वोत्कृष्ट वृत्ति वाले साधु तो सरस-आहार पर समान भाव रखते हुए जैसा आहार मिलता है, उसे वैसा ही रखते हैं, लोभ से परिवर्तन नहीं करते। उत्थानिका-अब सूत्रकार इस दुष्ट-क्रिया से क्या-क्या दोष होते हैं ?' इस विषय में कहते हैंअत्तट्ठागुरुओ लुद्धो, बहुं पावं पकुव्वइ। दुत्तोसओ अ से होइ, निव्वाणं च न गच्छइ॥३४॥ आत्मार्थगुरुको लुब्धः, बहुपापं प्रकरोति। दुस्तोषकश्च स भवति, निर्वाणं च न गच्छति॥३४॥ पदार्थान्वयः- अत्तट्ठागुरुओ-जिसे केवल अपना स्वार्थ ही सब से गुरु (बड़ा) लगता है, ऐसा उदरंभरि लुद्धो-क्षुद्र-लोभी साधु बहुं पावं-बहुत अधिक पापकर्म पकुव्वइ-करता है अ-और से-वह दुत्तोसओ-सन्तोष भाव से रहित होड़-हो जाता है। ऐसा साधु निव्वाणंचनिर्वाण (मोक्ष) भी न गच्छइ-नहीं प्राप्त कर सकता है। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 195
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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