SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थ है कि, 'वन्दमानो न याचेत् लल्लिव्याकणेण' अर्थात् साधु गृहस्थ की स्तुति करके आहारपानी न ले। जैसे कि, यह गृहस्थ बड़ा ही भद्र है। इसके सदा यही भाव रहते हैं कि, साधु का पात्र भर दूं, स्वल्प मात्र भी खाली न रक्खू, क्यों न ऐसे भाव हों, वस्तुतः तो वह मोक्षगामी जीव है, इत्यादि। उत्थानिका-अब सूत्रकार, वन्दना करने वाले और नहीं करने वाले दोनों पर समान दृष्टि रखने के विषय में कहते हैं जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिओ न समुक्कसे। एवमन्नेसमाणस्स , सामण्णमणुचिट्ठइ // 32 // यो न वन्दते न तस्मै कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्षेत्।। एवमन्वेषमाणस्य ,श्रामण्यमुनतिष्ठति // 32 // पदार्थान्वयः-साधु को चाहिए कि जे-जो गृहस्थ न वंदे-वन्दना नहीं करे से-उस पर न कुप्पे-क्रोध नहीं करे, यदि राजा आदि महान् पुरुष वंदिओ-वन्दना करे तो नसमुक्कसे-अहंकार न करे एवं-इसी प्रकार अन्नेसमाणस्स-जिनाज्ञा-प्रमाण चलने वाले साधु का सामण्णं-श्रामण्य भाव अणुचिट्ठइ-अखण्ड रहता है। मूलार्थ-जो साधु, वन्दना नहीं करने वालों से अप्रसन्न नहीं होता है और राजा आदि महान् पुरुषों की वन्दना से अहंकार नहीं करता, उसी साधु का चरित्र अखण्ड रहता है। टीका-इस गाथा में साधु वृत्ति का सर्वोत्कृष्ट लक्षण प्रतिपादन किया है। जैसे कि, यदि कोई गृहस्थ, साधु को वन्दना नहीं करता है तो साधु को उसके ऊपर क्रोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि गृहस्थ की इच्छा है-वन्दना करे या न करे। वन्दना करने से कुछ लाभ है तो गृहस्थ को ही है-साधु को कुछ नहीं, प्रत्युत हानि है तथा यदि किसी राजा आदि द्वारा साधु का अत्यन्त सत्कार होता है अर्थात् किसी मुनि के प्रति राजा आदि लोग पूर्ण भक्ति दिखाते हैं और भक्ति-भाव से नम्र होकर उसके चरण-कमलों का अपने मस्तक से स्पर्श करते हैं, तो उस समय मुनि को अहंकार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार समभाव पूर्वक जिनाज्ञा का पालन करने वाले मुनि का श्रामण्य (साधुत्व) अखण्ड रह सकता है। टीकाकार भी कहते हैं 'अन्वेषमाणस्य भगवदाज्ञामनुपालयतः श्रामण्यमनु-तिष्ठत्यखण्डमिति' भगवदाज्ञा का पालन करने वाले मुनि का ही साधुत्व अखण्ड रहता है। ___अतएव सिद्ध हुआ कि साधु , वन्दना-अवन्दना की कुछ चिन्ता न करे, और अपनी वृत्ति में सम्यक्तया रहता हुआ संयम-क्रिया का साधन करे, जिससे पूर्णतया आत्म-कल्याण हो सके। उत्थानिका- अब सूत्रकार गुरु श्री के समक्ष सरस आहार को न छिपाने के संबंध में कहते हैंसिआ एगइओ लद्धं लोभेण विणिगृहइ। मामेयंदाइअं संतं, दट्ठणं सयमायए॥३३॥ ... 194] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy