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________________ भत्तं-अन्न च-और पाणं-पानी अदितस्स-न देते हुए गृहस्थ के प्रति न कुप्पिज्जा-क्रोध न करे चाहे ये वस्तु पच्चक्खेवि अ-प्रत्यक्ष भी दीसओ-दिखाई देती है। मूलार्थ- यदि गृहस्थ प्रत्यक्ष दिखाई देते हुए भी शयन, आसन, वस्त्र और अन्न-पानी आदि पदार्थ न दे, तो साधु उस गृहस्थ पर अणुमात्र भी क्रोध न करे। टीका-भिक्षार्थ गए हुए साधु को यदि गृहस्थ सामने अथवा प्रत्यक्ष रक्खे हुए भी शयन-शय्या, आसन, पीठ, फलक आदि, वस्त्र और अन्न-पानी आदि पदार्थ न दे, तो साधु को उस गृहस्थ पर क्रोध नहीं करना चाहिए।अर्थात् मन में यह भाव कभी नहीं लाना चाहिए कि, देखो यह गृहस्थ कैसा नीच है कैसा कंजूस है, जो सामने इतने पदार्थ रक्खे हुए हैं, फिर भी नहीं देता, बल्कि हृदय को शान्त रखने के लिए यही भावना करनी चाहिए, साधु की वृत्ति याचना करने की है। देना न देना, यह तो गृहस्थ के अधिकार की बात है, दान देने से गृहस्थ का ही कल्याण होता है, साधु का नहीं। साधु का कल्याण तो अपनी ग्रहण की हुई संयम-क्रियाओं के पालन से ही होता है। अतः मेरी भोजन-वृत्ति संयम-क्रिया के अनुसार ही होनी चाहिए। इसी में कल्याण है। - उत्थानिका- अब सूत्रकार, वन्दना करने वाले स्त्री-पुरुषों से आहार की याचना नहीं करने के विषय में कहते हैं इथिअं पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं। वंदमाणं न जाएज्जा, नो अणं फरूसंवए॥३१॥ स्त्रियं पुरुषं वाऽपि, डहरं (तरूणं) वा महान्तम्। वन्दमनं न याचेत्, नचैनं परुषं . वदेत्॥३१॥ पदार्थान्वयः- साधु , वन्दमाणं-वन्दना करने वाले इत्थिअं-स्त्रीजन से वाविअथवा पुरिसं-पुरुष व्यक्ति से अथवा डहरं-तरुण (युवा) से अथवा वा-मध्यम वय वाले से अथवा महल्लगं-वृद्ध से किसी प्रकार की न जाइज्जा-याचना न करे अणं-इस आहार न देने वाले को किसी प्रकार का फरूसं-कठोर वचन भी नो वए-न बोले। . मूलार्थ- साधु , वन्दना करने वाले स्त्री पुरुष आदि से किसी प्रकार की याचना न करे। यदि कोई याचित वस्तु न दे, तो साधु उसको कटु वाक्य भी न कहे। टीका-भिक्षा के लिए गाँव में गए हुए साधु को, जो कोई स्त्री, पुरुष युवा, अधेड़ और वृद्ध लोग वन्दना करें तो साधु उनसे किसी प्रकार की भी याचना न करे, क्योंकि इस प्रकार याचना करने में वन्दना करने वाले लोगों के हृदय से साधओं के प्रति भक्ति-भावना नष्ट हो जाती है। यदि कदाचित् कारण-वश याचना करने पर भी, कोई वन्दना करने वाला निर्दोष आहार पानी न दे, तो साधु उसको कठिन वचन न बोले। जैसे कि, वृथा ते वन्दनम्-तेरी यह वन्दना वृथा है। अरे, इस झूठी वन्दना में क्या रखा है। यह बगुला भक्ति मुझे अच्छी नहीं लगती। भाई लंबीचौड़ी वन्दना करने का तो खूब अभ्यास कर लिया, पर कुछ देने का भी अभ्यास किया है। कुछ एक प्रतियों में वन्दमाणं न जाइज्जा' के स्थान में 'वंदमाणो न जाइज्जा' पाठ मिलता है। उसका पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 193
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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