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________________ हो जाता है। तल्लीनता ही वस्तुत:कार्य की संसाधिका है। ___उत्थानिका- अब सूत्रकार, आहार न देने वाले गृहस्थ के प्रति साधु क्या भावना रक्खे। यह कहते हैं बहुं परघरे अस्थि, विविहं खाइमं साइमं। न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज परो न वा // 29 // बहु परगृहेऽस्ति, विविधं खाद्यं स्वाद्यम्। न तत्र पण्डितः कुप्येत्, इच्छा दद्यात् परो न वा // 29 // पदार्थान्वयः-परघरे-गृहस्थ के घर में बहुं-बहुत विविहं-नाना प्रकार के खाइमंखाद्य तथा साइमं-स्वाद्य पदार्थ अस्थि-होते हैं; यदि गृहस्थ साधु को वे पदार्थ न दे तो पंडिओविद्वान् साधु तत्थ-उस गृहस्थ पर न कुप्पे-क्रोध न करे, परन्तु यह विचार करे कि परो-यह गृहस्थ है इसकी इच्छा-इच्छा हो तो दिज-देवा-अथवा इच्छा न हो तो न-न दे। . .. मूलार्थ-गृहस्थ के घर में, नाना प्रकार के स्वाद्य तथा खाद्य पदार्थ विद्यमान हैं। परन्तु यदि गृहस्थ, साधु को वे पदार्थ न दे, तो साधु को उस.गृहस्थ पर क्रोध नहीं करना चाहिए बल्कि विचार करना चाहिए कि, यह गृहस्थ है। इसकी इच्छा है दे या न दे, मेरा इस में क्या आग्रह है। टीका- सन्तोषी साधु भिक्षा के लिए गृहस्थों के घरों में गया। वहाँ उसने किसी गृहस्थ के घर में देखा कि नाना प्रकार के खाद्य पदार्थ बनाकर रक्खे हुए हैं। पर गृहस्थ भिक्षा में वे पदार्थ न दे तो साधु को उस गृहस्थ पर किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं करना चाहिए प्रत्युत यही विचार करना चाहिए कि यह गृहस्थ है, इस की वस्तु है, चाहे दे या न दे। मैंने इसका कोई काम तो किया ही नहीं, जो मेरा इस पर कुछ अधिकार हो। यह दान में कुछ लाभ समझता है, तो देता है, नहीं समझता है तो नहीं देता है, यह सब इसकी इच्छा की बात है। इस प्रकार के शास्त्रीय विचारों से साधु, अपने हृदय को शान्त रक्खे क्षुभित न होने दे, क्योंकि क्रोध करने से साधु का अमूल्य सामायिक-व्रत नष्ट हो जाता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार यदि कोई गृहस्थ प्रत्यक्ष रक्खी हुई भी वस्तु न दे, तो साधु को उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए। यह कहते हैंसयणासणवत्थं वा, भत्तपाणं च संजए। अदितस्स न कुप्पिज्जा, पच्चक्खेवि अदीसओ॥३०॥ शयनासनवस्त्रं वा, भक्तपानं च संयतः। अददतः न कुप्येत्, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने॥३०॥ पदार्थान्वयः- संजए-साधु सयणं-शयन आसणं-आसन वत्थं-वस्त्र वा-अथवा 192] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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