________________ अदीनो वृत्तिमेषयेत्, न विषीदेत् पण्डितः। अमूच्छितो भोजने, मात्राज्ञ एषणारतः॥२८॥ पदार्थान्वयः-पंडिए-पण्डित साधु अदीणो-दीनता से सर्वथा रहित होकर वित्तिम्प्राण निर्वाहक वृत्ति की एसिज्जा-गवेषणा करे, आहार न मिले तो न विसीइज्ज-विषाद भी न करे और भोयणमि-सरस भोजन के मिल जाने पर उस में अमूच्छिओ-अमूछित रहे, अन्तिम बात यह है मायण्णे-आहार की मात्रा का जानने वाला प्रवीण मुनि एसणारए-जो आहार सर्वथा निर्दोष हो उसी में रत रहे। मूलार्थ- विद्वान् साधु वही है, जो दीनता से रहित होकर, प्राणनिर्वाहक आहार-वत्ति की गवेषणा करता है। जो आहार न मिलने पर कभी व्याकल नहीं होता है और जो सरस भोजन मिल जाने पर उस में मूर्छित नहीं होता है, वह आहार की मात्रा का ठीक-ठीक जानने वाला मुनि; उसी आहार में रत रहता है, जो आहार शास्त्रोक्त विधि से सर्वथा शुद्ध अर्थात् निर्दोष होता है। टीका- संयम पालन के लिए प्राणों को कितनी बड़ी आवश्यकता है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। सब कोई विचारशील सज्जन इस बात को भलीभाँति सिद्धान्त रूप से जानते हैं। ___ और प्राणों की रक्षा आहार से होती है। अतः संयमी का कर्तव्य है कि, शुद्ध संयम पालन के लिए शुद्ध आहार की ही गवेषणा करे। दूषित आहार की कदापि इच्छा न करे। परन्तु गवेषणा के साथ एक बात और है, वह यह कि, चित्त में किसी प्रकार की दीनता के भाव न लाए, क्योंकि दीनता के आ जाने से शुद्ध आहार की गवेषणा नहीं हो सकती और फिर जिस प्रकार का मिले उसी से बस पेट भरने की पड़ जाती है। यदि कभी दीनता रहित वृत्ति के अनुसार आहार पानी न भी मिले, तो साधु को चित्त में दुःख नहीं करना चाहिए, क्योंकि साधु को मिल जाए तो उत्तम और न मिले तो भी उत्तम है। दोनों दशाओं में आनन्द ही आनन्द है ? साधु को रसलोलुपी भी नहीं होना चाहिए। साधुता इसी में है कि अच्छा बुरा जैसा आहार मिले, उसी में सन्तोष करे। यह नहीं कि आहार में कभी स्वादिष्ट पदार्थ मिल जाए तो बस उसी पर मूच्छित हो जाए एवं अपनी, दान की तथा दातार की स्तुति के पुल बाँधने लग जाए। वह साधु कैसा, जो सरस-नीरस के अपवित्र विचार को अपने पवित्र हृदय में स्थान देता है। - साधु को आहार की मात्रा का, जिससे अच्छी तरह क्षुधा निवृत्त हो सके, विचारविमर्श के साथ पूर्ण ज्ञाता होना चाहिए, क्योंकि जो साधु आहार की मात्रा को नहीं जानने वाला है, वह या तो इतना थोड़ा आहार लावेगा, जिससे क्षुधा-निवृत्ति न हो सके और या इतना अधिक आहार लाएगा जिसको भूख की सीमा से अधिक होने के कारण गिराना पड़े। आहार की मात्रा को न जानने वाले मुनि से उद्गम दोष, उत्पादन दोष तथा एषणा के दोषों से रहित आहार की शुद्ध गवेषणा भी नहीं हो सकती। - सूत्रकार का भाव यह है कि, जो साधु, इस सूत्रोक्त क्रिया का पालक है, वही आत्मसाधक हो सकता है अन्य नहीं। जब साधु के भाव आहार में समभाव-सम हो जाते हैं, तब साधु की वास्तविक गम्भीरता बढ़ जाती है। जिससे फिर वह अपने आत्म-कार्य में पूर्ण रूप से तल्लीन पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 191