________________ कि, जितने भी सचित्त चूर्ण हैं, वे साधु को अग्राह्य हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार ऊँच-नीच कुलों से समान भाव में भिक्षा लाने के विषय में कहते हैं समुआणं चरे भिक्खू, कुलमुच्चावयं सया। नीयं कुलमइक्कम्म, ऊसढं नाभिधारए॥२७॥ समुदानं चरेद्भिक्षुः, कुलमुच्चावचं सदा। नीचं कुलमतिक्रम्य, उत्सृतं नाभिधारयेत्॥२७॥ पदार्थान्वयः-भिक्खू-साधु समुआणं-शुद्ध-भिक्षा का आश्रयण करके सया-सदा उच्चावयं-ऊँच और नीच कुलों में चरे-आहार के लिए जाए, परन्तु नीयं कुलं-नीच कुल को अइक्कम्म-उल्लंघन करके ऊसढं-ऊँचे कुल में नाभिधारए-न जाए। मूलार्थ- शुद्ध भिक्षार्थी साधु , ऊँच और नीच कुलों में समान भाव से सदा आहार के लिए जाए, परन्तु सरस-नीरस आहार के विचार से धन हीन, नीच कुलों को लाँधकर [ छोड़कर ] धन संपन्न-ऊँचे कुलों में कदापि न जाए। टीका- इस गाथा में सन्तोष-वृत्ति और कुल के विषय में प्रतिपादन किया है कि, जो साधु , शुद्ध भिक्षा का अभिलाषी है (समुदान शब्द से यहाँ शुद्ध-भाव-भिक्षा का ग्रहण है), उसका कर्तव्य है कि, वह मार्ग में आए हुए सभी ऊँच-नीच कुलों में, समान भाव से प्रवेश करे। यह नहीं कि अच्छे स्वादिष्ठ भोजन के लिए नीच कुलों को छोड़ता हुआ उच्च कुलों की खोज में आगे ही आगे बढ़ता रहे / यदि कोई जिह्वा-लोलुप साधु, सूत्र के उपर्युक्त कथन के विपरीत कार्य करेगा, अर्थात् हीन कुलों को छोड़कर, उच्च कुलों में ही जाएगा, तो इससे जिन शासन की लघुता होगी। देखने वाले लोग कहेंगे कि, साधु होकर ऊपर से मुँह बाँध लिया क्या हुआ, भीतर से जिह्वा तो नहीं बाँधी.(वश में नहीं की) वह तो ताजा माल खाने के लिए अत्यधिक लालायित हो रही है। साधओं के यहाँ पर भी धनवानों की ही प्रतिष्ठा है. बेचारे गरीबों को तो साध भी नहीं पूछते। यद्यपि इस स्थान पर सूत्र में केवल ऊँच-नीच कुल का सामान्यतया विधान किया है तथापि वृत्तिकार के एवं परंपरा के मत से विभवापेक्षया अर्थात् धन की अपेक्षा से ऊँच एवं नीच कुल का वर्णन किया जाता है। भाव यह है कि जो कुल धनाढ्य है, उनकी उच्च संज्ञा है और जो कुल धन हीन-दरिद्र हैं, उनकी नीच संज्ञा है। वास्तव में यह तात्पर्य ठीक है, क्योंकि सूत्रकार का संकेत सरस-नीरस आहार की ओर है। सरस आहार, धन-संपन्न कुलों में मिलता है और नीरस आहार, धनहीन कुलों में। इसलिए ऊँच-नीच कुल का संक्षिप्त शब्दों में स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि, जिस कुल में विशेष मनोऽभिलषित सुस्वादु पदार्थों की प्राप्ति होती है, उस कुल की उच्च संज्ञा है और जिस कुल में प्रायः असार-दुःस्वादु-बिना स्वाद का-भोजन मिलता है, उस कुल की नीच संज्ञा है। उत्थानिका-अब अदीन वृत्ति से आहार की गवेषणा करने के विषय में कहते हैंअदीणो वित्तिमेसिज्जा, न विसीइज्ज पंडिए। . अमुच्छिओ भोयणंमि, मायण्णे एसणा रए.॥२८॥ 190] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्