________________ उत्कालिक दो भेद करके उत्कालिक सूत्रों की गणना में सर्वप्रथम दशवैकालिक सूत्र का नाम कथन किया है। अतएव सिद्ध हुआ कि, यह सूत्र प्राचीन समय में प्रथम उत्कालिक नाम से प्रसिद्ध था। जब सूत्रों की संख्या अल्प होने लगी और कतिपय मतवादी सूत्रों में गड़बड़ करने लगे, तो बत्तीस सूत्रों के मानने वालों ने अंग, उपांग, मूल, छेद और आवश्यक भेद से सूत्रों के पाँच विभाग कर दिए। यथा-आचारांग आदि 11 अंग सूत्र, उववाई आदि 12 उपांग सूत्र, दशवैकालिक आदि 4 मूल सूत्र, निशीथ आदि 4 छेद सूत्र, और ३२वाँ आवश्यक सूत्र। इस प्रकार ये वर्तमान काल में प्रचलित अंग आदि संज्ञाएँ अर्वाचीन ही प्रतीत होती हैं, सूत्रों में इन संज्ञाओं का कोई विधान नहीं है। मूल और छेद संज्ञाएँ अंग और उपांग संज्ञाओं से भी अर्वाचीन हैं; क्योंकि श्री हेमचन्द्राचार्य अभिधानचिंतामणि कोष के द्वितीय कांड में 11 अंग सूत्रों और 12 उपांग सूत्रों का नामोल्लेख करके 'इत्येकादश सोपाङ्गान्यङ्गानि' पद देकर अंग और उपांग संज्ञा तो स्वीकार करते हैं, किन्तु आगे मूल और छेद के विषय की कुछ चर्चा नहीं करते। अतः सिद्ध है कि, दशवैकालिक आदि सूत्रों की मूल संज्ञा का विधान आचार्य हेमचन्द्र से भी पीछे हुआ है। आचार्य हेमचन्द्र विक्रम की १२वीं शताब्दी के लगभग हुए हैं। अब कहना यह है कि, यह मूल संज्ञा अर्वाचीन भले ही हो, किन्तु है पूर्ण सार्थक। आज कल यह सूत्र सर्वप्रथम पाठ्य होने से मूल रूप ही है। चूलिकाएँ ___ दशवैकालिक सूत्र पर दो चूलिकाएँ भी हैं, जिन्हें परिशिष्ट कह सकते हैं। इनके कर्ता सूत्रकार श्री शय्यंभवाचार्य नहीं हैं, किन्तु कोई अन्य ही हैं। रचयिता ने अपना नामोल्लेख नहीं किया है। चूलिकाएँ साधुचर्या की प्रतिपादिका हैं एवं अतीव शिक्षाप्रद हैं; अतः हमने भी प्रस्तुत प्रति में इनको सहर्ष स्थान दिया है। ये दोनों चूलिकाएँ शास्त्रसम्मत हैं, अतः प्रामाणिक मानी जाती हैं। नियुक्तिकार भी इनकी प्रामाणिकता स्वीकार करते हैं दो अज्झयणा चूलिअं, विसीययंते थिरीकरणमेगं। विइए विवित्तचरिआ, असीयणगुणाइरेगफला // 24 // प्रस्तावना का आकार अधिक लंबा होता जा रहा है, तथापि चूलिकाओं की उत्पत्ति के विषय में जो जनता में एक निराधार किंवदन्ती प्रचलित है, उस पर प्रकाश डाला जाता है। बृहद्वृत्ति और दीपिका टीका में वृद्धवाद के नाम से लिखा है कि, किसी साध्वी ने चातुर्मास आदि पर्व के अवसर पर, एक ऐसे दुर्बल साधु को उपवास करा दिया, जो थोड़ी भी क्षुधा नहीं सहन कर सकता था। क्षुधा न सहने के कारण, साधु की उस उपवास में ही मृत्यु हो गई। साध्वी को बड़ा पछतावा हुआ कि, हाय ! मैं ऋषि घातिका हो गई, मेरी कैसे आत्मशुद्धि हो ! तब शासन देवी के द्वारा वह महाविदेह क्षेत्र में भगवान् श्री सीमंधर स्वामी के पास पहुंची और आलोचना की। भगवान् ने कहा कि आर्ये ! तू निर्दोष है, तेरे भाव साधु के हित के थे, न कि मारने के। वापस आते समय भगवान् ने कृपा करके साध्वी को उक्त दो चूलिकाएँ दीं। भगवत्प्रदत्त होने से भारतीय जैनसंघ में चूलिकाओं का बहुत आदर एवं प्रचार हुआ। यही चूलिकाओं के आविर्भाव की कहानी है, जो श्वेताम्बर मूर्ति पूजक समाज में विशेष स्थान पाई हुई है। हमें इस कहानी के विषय में कहना है कि यह केवल कल्पना है। इसमें कुछ भी तथ्य नहीं है, क्योंकि प्रथम xxii