________________ अध्ययन से लिया गया है। इन दोनों अध्ययनों की तो विषय के साथ बहुत सी गाथाएँ भी मिलती हैं। तृतीय अध्ययन निशीथ आदि सूत्रों से लिया है। चतुर्थ अध्ययन आचारांग सूत्र के 24 वें अध्ययन के अनुसार रचा हुआ है। पंचम अध्ययन आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के पिंडैषणा नामक प्रथम अध्ययन का प्रायः अनुवाद है। छठे अध्ययन में समवायांग सूत्र के अष्टादश समवाय की अष्टादश शिक्षाओं का विवेचन रूप है। तथा च तत्पाठः-समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं सखुड्डय वियत्ताणं अट्ठारस ठाणा प० तं वयछक्कं 6 कायछक्कं 12 अकप्पो 13 गिहिभायणं 14 पलियंक 15. निसिजाय 16 सिणाणं 17 सोभवजणं 18 // सातवाँ अध्ययन आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के तेरहवें भाषा नामक अध्ययन का अनुवाद है। आठवाँ स्थानांगसूत्र के आठवें स्थानक से विवेचनपूर्वक लिया गया है; तथा च पाठः- अट्ठसुहुमा प० तं पाणसुहुमे 1 पणग सुहुमे 2 बीयसुहुमे 3 हरितसुहुमे 4 पुष्फसुहुमे 5 अंडसुहुमे 6 लेणसुहुमे 7 सिणेहसुहुमे 8 (सू० 615) अब रहे अवशिष्ट के नवम और दशम अध्ययन, वे भिन्न-भिन्न सब सूत्रों की अनुपम शिक्षाओं से समलंकृत हैं। यह दूसरा पक्ष हुआ। बुद्ध्यनुसार विचार विनिमय करने पर अधिक अंशों में प्रथम की अपेक्षा द्वितीय पक्ष ही बलवान् प्रतीत होता है। आगे तत्त्व सर्वज्ञगम्य है। दशवकालिक सूत्र की व्याख्याएँ दशवैकालिक सूत्र पर अतीव प्रसिद्धि में आई हुई नियुक्ति, टीका और दीपिका के नाम से तीन व्याख्याएँ हैं; जो बड़ी ही सुन्दर एवं मननीय हैं। नियुक्ति प्राकृत गाथाओं में है, जिसके रचयिता भद्रबाहु स्वामी माने जाते हैं। बहुत से सज्जन इसके रचयिता उन्हीं भद्रबाहु स्वामी को मानते हैं, जो मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त के गुरु थे। किन्तु विचार करने पर यह नियुक्तिकार भद्रबाहु, उनसे अन्य ही प्रतीत होते हैं। क्योंकि नियुक्ति में दशवैकालिक के अध्ययनों का पूर्वोक्त रीत्या उद्गम बतलाते हुए दो पक्ष कथन किए हैं; अतः वे चन्द्रगुप्तकालीन भद्रबाहु स्वामी तो मति, श्रुत, अवधिज्ञान के धारी एवं चतुर्दशपूर्व के पाठी थे, दो पक्षों के संशय में क्यों पड़ते? ज्ञानबल से किसी एक उचित पक्ष का ही उल्लेख करते तथा नियुक्ति में श्री शय्यंभवाचार्य का जिनप्रतिमा के दर्शन से प्रतिबोधित होना लिखा है, वह भी ठीक नहीं जान पड़ता, क्योंकि यदि ऐसा होता तो महानिशीथ सूत्र में भी श्री शय्यंभवाचार्य के वर्णन में यह कथन आता। अतः इसी प्रकार की अन्य बातों के भी देखने से यह नियुक्तिकार भद्रबाहु, पूर्वपाठी भद्रबाहु से भिन्न और पीछे के जान पड़ते हैं। इस पर ऐतिहासिक विद्वानों को विशेष ध्यान देना चाहिए। अब रही टीका और दीपिका। इनके रचयिता क्रमशः हरिभद्र सूरि और समयसुन्दर गणी हैं, जो दोनों ही प्रौढ़ विद्वान् हैं। हरिभद्र सूरि तो बड़े ही तार्किक विद्वान् थे। इनके बहुत से ग्रन्थ बनाए हुए हैं, जिन्हें देखकर विधर्मी विद्वान् भी इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा करते हैं। मूल संज्ञा कब हुई ? ___नंदी सूत्र में श्रुतज्ञान के अधिकार में सूत्रों को अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य नामक दो भागों में विभाजित किया है। अंगप्रविष्ट में आचारांग आदि द्वादशाङ्गों का ग्रहण है। अब रहा अंगवाह्य, उसके भी आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त दो भेद किए हैं। फिर आवश्यक व्यतिरिक्त के भी कालिक और xxi