________________ किस अध्ययन में क्या वर्णन है ? प्रथम अध्ययन में धर्म प्रशंसा का वर्णन है। द्वितीय अध्ययन में संयम में धैर्य रखने का उपदेश दिया गया है। तृतीय अध्ययन में आत्म संयम के लिए छोटी-छोटी शिक्षाओं का वर्णन है। चतुर्थ अध्ययन में षट्काय के जीवों की रक्षा का विधान किया है। पाँचवें अध्ययन में संयम एवं तप की अभिवृद्धि के लिए शुद्ध भिक्षा-विधि का वर्णन है। अध्ययन छह में अष्टादश स्थानों का निरूपण करके महाचारकथा का वर्णन किया है। सातवें अध्ययन में धर्मज्ञ पुरुषों को विशिष्ट धर्म की शिक्षाएँ दी गई हैं। आठवें अध्ययन में आचार प्रणिधि का वर्णन किया गया है। नौवें अध्ययन में विनय का महत्त्व और उसका फल बताते हुए विनय धर्म का बड़ा ही विस्तृत विवेचन किया है। दशवें अध्ययन में उपसंहार रूप में भावभिक्षु के लक्षणों का दिग्दर्शन कराया गया है। यह दस अध्ययनों का प्रतिपाद्य विषय है, इसी में आचार्य श्री ने बिन्दु में सिन्धु के समाने की लोकोक्ति चरितार्थ की है। कहाँ से उद्धृत हैं ? अब प्रसंगोपात्त यह बताया जाता है कि, दशवैकालिक के ये दस अध्ययन किन-किन स्थानों से उद्धत किए गए हैं। इसके विषय में दो मत प्रचलित हैं; एक पक्ष तो पूर्वो से दशवैकालिक का उद्धार मानता है और दूसरा पक्ष द्वादशांग से। नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी अपनी नियुक्ति में दोनों ही पक्षों का उल्लेख करते हैं आयप्पवायपुव्वा , निजूढा धम्म पन्नत्ती। कम्मप्पवायपुव्वा , पिंडस्स उ एसणा तिविहा॥१६॥ सच्चप्पवायपुव्वा , निजूढा होइ वक्कस्स।, अवसेसा निजूढा, नवमस्म उ तइय वत्थुओ॥१७॥ वीओऽविअ आएसो, गणिपिडगाओ दुवालसंगाओ। एअं कीरं निजूढं, मणगस्स अणुग्गहट्ठाए॥१८॥ भाव यह है कि, आत्म प्रवाद पूर्व में से धर्म प्रज्ञप्ति नामक चतुर्थ, कम प्रवाद पूर्व में से पिंडैषणा नामक पंचम अध्ययन, सत्य प्रवाद पूर्व में से वाक्य शुद्धि नामक सप्तम अध्ययन उद्धृत किया और शेष अध्ययन नौवें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु में से उद्धृत किए हैं। यह प्रथम पक्ष हुआ। अब दूसरा पक्ष यह है कि आचारांग आदि द्वादशांग से इस सूत्र की रचना की गई है। अब हमारा जहाँ तक विचार जाता है, तदनुसार यह सूत्र दूसरे पक्ष की मान्यता के.साथ वर्तमान काल के बत्तीस सूत्रों से सम्बन्ध रखता है। इसकी संगति इस प्रकार होती है। प्रथम अध्ययन की रचना, श्री अनुयोगद्वार सूत्र में कही गई। साधु की बारह उपमाओं में से भ्रमर की उपमा को लेकर की गई है। प्रथम अध्ययन में भ्रमर के दृष्टान्त से दार्टान्तिक का भाव उतार कर यह सिद्ध किया है कि संसार में चारित्र धर्म ही उत्कृष्ट है और चारित्रधर्म की रक्षा मधुकरी वृत्ति से हो सकती है। अनुयोगद्वार सूत्र में साधु की बारह उपमाओं वाला पाठ यह है-उरगगिरि जलन सागर नह तल तरुगण समो अजो होई, भमरमिय धरणि जलरुह रवि पवण समो अ सो समणो (131) / द्वितीय अध्ययन उत्तराध्ययन सूत्र के २२वें XX