________________ चिन्तामणि कोष में के देवाधिदेव कांड में छः श्रुत केवली माने हैं, उनमें शय्यंभवजी द्वितीय स्थान में ही हैं। तथाहि- . अथ प्रभव प्रभुः शय्यंभवो यशोभद्राः, संभूतविजयस्ततः॥३॥ भद्रबाहुः, स्थूलभद्र : , श्रुतकेवलिनो हि षट्। उपर्युक्त प्रमाणों से इस दशवैकालिक सूत्र की प्रामाणिकता निर्विवाद सिद्ध है। इसे बने आज तेईस सौ वर्ष से कुछ ऊपर पूर्व का सुदीर्घ समय हो चुका है; किन्तु मध्यकाल में किसी भी आचार्य ने इसे अप्रामाणिक नहीं ठहराया / सभी आचार्य बिना वाद-विवाद के इसे प्रामाणिक मानते हैं और चारित्र वर्णन का प्रथम सूत्र मान कर पढ़ते-पढ़ाते आए हैं। यही कारण है कि आज भी यह सूत्र श्वेतांबर आम्नाय की स्थानकवासी, मूर्तिपूजक और तेरापंथी नामक सभी शाखाओं में बिना किसी पक्षपात के प्रामाणिक माना जाता है और पठन-पाठन में लाया जाता है। जिनवाणी के समान ही इसे मानते हैं। दशवकालिक नाम क्यों ? - इस सूत्र का चारित्रपरक नाम न होकर, एक विलक्षण दशवैकालिंक नाम क्यों ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि, यह सूत्र जब संग्रह होकर समाप्त हुआ, तब असमय हो गया था; अतः "वैकालिक" शब्द की योजना दश अध्ययनों के भाव से 'दश' शब्द के साथ की गई, जिससे इस सूत्र का नाम दशवैकालिक रक्खा गया। यह नाम दश अध्ययनों का और सूत्र समाप्ति के समय का सूचक है, अतः यौगिक है। मंगलाचरण क्यों नहीं ? ___ बहुत से सज्जन इस सूत्र के आदि में मंगलाचरण न होने के विषय में शंकित हैं, उनसे कहना है कि, यह सूत्र समग्र ही अक्षरशः मंगल रूप है; क्योंकि यह निर्जरा का कारणभूत है, सर्वज्ञ प्रणीत है तथापि व्यावहारिक दृष्टि से इसमें भी आदि, मध्य और अन्त में मंगल विधान किया है। आदि मंगल 'धम्मो मंगल मुक्किट्ठ' है, मध्य मंगल 'नाणदंसण संपन्नं' (6 अ) है और अन्तिम मंगल 'निक्खममाणाइ य बुद्धवयणे (10 अ०)' है। उक्त तीनों मंगलों से परंपरागत यह भाव लिया जाता है कि, आदि मंगल शास्त्र की विघ्नोपशान्ति के लिए , मध्य मंगल प्रतिपाद्य विषयात्मक ग्रन्थ को स्थिरीभूत करने के लिए और अन्तिम मंगल शिष्य-शाखा में ग्रन्थ के अव्यवच्छेद रूप से पठन-पाठन के लिए किया जाता है। श्री 'जिनवाणी चार अनुयोगों में विभक्त है, चरण करणानुयोग-आचारांग आदि, धर्म कथानुयोग-सूत्र कृतांग आदि, गणितानुयोग-सूर्य प्रज्ञप्ति आदि, और द्रव्यानुयोग-दृष्टिवाद आदि। अतः यह सूत्र प्रथम के चरणकरणानुयोग में होने से अतीव मंगल रूप है; क्योंकि चरणानुयोग के बिना आगे के तीनों योग मुमुक्षुओं के लिए प्रायः कार्य साधक नहीं। सार तत्त्व यही है। xix