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________________ छठे अध्ययन की आठवीं गाथा में 'महावीरेण देसिअं'- और इक्कीसवीं गाथा में 'नायपुत्तेण ताइणा' जो पद दिए हैं, वे सूचित करते हैं कि-दशवैकालिक में जो कुछ प्रतिपादन किया है, वह वीर वचनानुसार होने से सत्य ही है, असत्य नहीं। इसी प्रकार महानिशीथ सूत्र में भी श्री भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी जी को जो वक्तव्य दिया है, उससे भी इस सूत्र की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। वह पाठ इस प्रकार है गोयमाणं इओ आसण्णकालेणं चेव महाजसे, महासत्ते, महाणुभागे, सेजंभवे अणगारे, महातवस्सी, महामई, दुवालसंगेसु अ धारि भवेजा, सेणं अपक्खवाएणं अप्पाओ सवसव्वसे सुअतिसअणं विनाय इकारसण्हं अंगाणं चोद्दसण्हं पुव्वाणं परमसार वण्णियसुअं सुप्पओगेणं सुअधर उज्जुअं सिद्धिमग्गं दसवेआलिअंणाणासुयक्खंधाणि उहजा। से भयवं ! किं पडुच्च ? गोयमा ! मणगं पडुच्च, जहाकहं नाम एसणं मणगस्स परिणएयां थोवकालेणं ण एवं महत्काले घोरदुक्ख आगाराओ चउगइसंसाराओ निफोडे भवणुगुच्छेवणं दवथओवएसेणं से अ सव्वण्णूवए से अणोरपारे दुक्खगाढे अणंतगमपजवे हि नो सक्का अप्पेणं कालेणं अवगाहीओ तहाणु गोयमा ! अइहिएणं चित्तेजा एवं सेणं सेणं सेजंभवे जहा अणंतपहापार बहुजाणियव्वं कालो बहुलोए विग्धे जं सारभूअंतं गिहिवं हं सो जहा खीरमिव वुमिसत्तेणं इमं संभवं सत्त समणगस्स तत्तपरित्राणं भवउति काउणंजावणं दसवेआलिअंसुयखंधणी कहेज्जा।तं च वोच्छिन्नेणं तं कालंदुवालसंगेणं गणि पिडगेणं जाव णं दुसमाया परियेरंतं दुप्पसहे ताव णं सुततेणं वा जत्ता से सयल आगम सया वि संदेह दसवेआलिअ सुयक्खं सुत्त अ अहिझिए गोयमा ! (अध्ययन 5 दुःषमारक प्रकरण)* इस पाठ का संक्षिप्त भाव यह है कि, हे गौतम ! मेरे बाद निकट भविष्य में ही द्वादशांग का ज्ञाता महान् तपस्वी शय्यंभवाचार्य होगा। वह बिना किसी पक्षपात के धर्म बुद्धि से प्रेरित होकर अल्पायु मनक शिष्य की आराधना के लिए ग्यारह अंग और चतुर्दश पूर्वो का सारभूत दशवैकालिक सूत्र का निर्माण करेगा। वह सूत्र का संसार तारक एवं मोक्षमार्ग प्रदर्शक होगा। उसे पढ़कर दुःषमकाल के अन्त में होने वाला दुप्पसह नामक साधु आराधना करके आराधक बनेगा। ___ नन्दी सूत्र में श्रुतज्ञान के अधिकार में कहा गया है कि-"दुवाल संगं गणि-पिडगं चोइस पुव्विस्स सम्मसुअं अभिण्णदस पुव्विस्स सम्मसुअं, तेण परं भिण्णेसु भयणा से तं सम्मसुअं[सू० 41]" अर्थात् गणि पिटक की संज्ञा वाले आचारांग आदि द्वादशांग सूत्र और चतुर्दश पूर्व से लेकर दश पूर्व संपूर्ण तक के ज्ञाता मुनियों के रचित शास्त्र सब सम्यक् श्रुत हैं, अतः पूर्ण रूप से सत्य हैं और जो अपूर्ण दश पूर्व के पाठी होते हैं, उनके द्वारा रचित शास्त्र संदिग्ध होता है- अर्थात् वह सम्यक् श्रुत भी हो सकता है और मिथ्या श्रुत भी। अत: इस नंदी सूत्र के वचन से भी दशवैकालिक प्रमाण कोटि में है, क्योंकि श्री शय्यंभवजी चतुर्दश पूर्व के पाठी और श्रुतकेवली थे। श्री हेमचन्द्राचार्य ने अपने अभिधान * यह महानिशीथ सूत्र यद्यपि श्वेताम्बर स्थानकवासी संप्रदाय को मान्य नहीं है तथापि प्रकरण संगति के लिए इसका उद्धरण दिया है। xviii
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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