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________________ एवं रहस्यमय है; अतः प्रथम श्रेणी के मन्द-बुद्धि-शिष्यों को भली-भाँति बोधगम्य नहीं होता और यह प्रस्तुत दशवैकालिक सूत्र (जो पाठकों के समक्ष है) का वर्णन संक्षिप्त एवं सरल है, अतः जिज्ञासुओं की सुकुमारमति इसमें सहसा प्रविष्ट हो जाती है; क्योंकि यह सूत्र सुबोधता का उद्देश्य रखकर ही बनाया गया है। यद्यपि यह सूत्र मुख्यतः मुनिधर्मप्ररूपक है, तथापि गृहस्थों के लिए भी बहुत लाभप्रद है। इसके पठन से गृहस्थ भी बहुत कुछ आत्मोद्धार कर सकते हैं। यह सूत्र किसने क्यों और कब बनाया ? ___इस सूत्र के निर्माता श्री शय्यंभव आचार्य हैं। यह जाति के ब्राह्मण और बड़े भारी दिग्गज विद्वान् थे। इनकी जन्म भूमि मगध देश की प्रसिद्ध राजधानी राजगृह है। यह अपने द्रव्य से एक विशाल यज्ञ कर रहे थे कि श्री जम्बू स्वामी जी के पट्टधर श्री प्रभव स्वामी के उपदेश से संसार का परित्याग कर मुनि हो गए। श्री प्रभव स्वामी के बाद यह पट्टधर आचार्य हुए। जब यह मुनि हुए तब इनकी स्त्री गर्भवती थी, बाद में उसके पुत्र हुआ, जिसका नाम मनक रक्खा गया। सम्भवतः दस ग्यारह वर्ष की अवस्था में यह मनक पुत्र अपनी माता से पूछ कर चंपा नगरी में अपने संसारी पिता श्री शय्यंभवाचार्य जी से मिला और परिचय के पश्चात् उनका शिष्य हो गया। आचार्य श्री ने ज्ञान बल से देखा, तो उस समय मनक की आयु केवल छः महीने की शेष रही थी। तब, चारित्र की आराधना कराने के वास्ते श्री शय्यंभवाचार्य जी ने पूर्वश्रुत में से, संक्षिप्त रूप से, इस दशवैकालिक सूत्र का उद्धार किया। इस सूत्र के अध्ययन से मनक ने छः मास में ही स्वकार्य की सिद्धि की। : इस सूत्र की रचना आज से करीब चौबीस सौ वर्ष से कुछ ऊपर पहले हुई है। अर्थात् भगवान् महावीर के निर्वाण से ७५वें वर्ष से ९८वें वर्ष के मध्य में यह सूत्र बनाया गया है; क्योंकि इस समय में श्री शय्यंभवाचार्य जी आचार्य पद पर प्रतिष्ठित थे और संघ का संचालन कर रहे थे, इसी बीच की यह घटना है। ऐतिहासिक शोध के अनुसार दशवैकालिक का रचना काल, स्पष्टतया वीर संवत् 75 के लगभग ठहरता है। श्री शय्यंभवाचार्य जी का स्वर्गवास वीर संवत् 983 में हुआ था, अर्थात् आज से सम्भवतः 2367 वर्ष पूर्व। अब वीर संवत् 2466 चालू है। इतने सुदीर्घ समय से आज तक, इस सूत्र का लगभग संघ में पठन-पाठन होता चला आ रहा है। इसी से इस सूत्र की महत्ता प्रमाणित होती है। ... उपर्युक्त वक्तव्य के लिए पाठकों को प्रमाण-स्वरूप, कल्प सूत्र की सुबोधिनी व्याख्या का यह अंश देखना चाहिए "तदनु श्री शय्यंभवोऽपि साधानमुक्तनिजभार्याप्रसूतमनकाख्यपुत्र हिताय, श्रीदशवैकालिक कृतवान्। क्रमेण च श्रीयशोभद्रं स्वपदे संस्थाप्य, श्री वीरादष्ट नवत्या (98) वर्षेः स्वर्जगाम"॥ (आगमोदयसमिति मुद्रित पृष्ठ 161) क्या यह प्रामाणिक है ? इस सूत्र की प्रामाणिकता के विषय में कोई शंका नहीं उठाई जा सकती; क्योंकि इसके रचयिता श्री शय्यंभवाचार्य चतुर्दश पूर्व के पाठी थे, सो उन्होंने यह सूत्र पूर्वश्रुत में से उद्धृत करके रचा है। xvii
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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