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________________ को नष्ट करने वाला चारित्र ही है। ज्ञान दर्शन की वास्तविक शोभा भी चारित्र से ही होती है। कहा भी है नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ॥३॥ (उत्त२८ अ) यही कारण है कि, चारित्र हीन का सत्योपदेश भी जनता में हास्यकर ही होता है। चारित्र संपन्न व्यक्ति का वाक्य, मधु-घृत-सिक्त यज्ञ की अग्नि के समान सुशोभित एवं पूज्य होता है और चारित्र हीन का वाक्य तेल रहित दीपक के समान कलुषित एवं कुरुप मालूम होता है। चारित्रवान् के पौष्टिक वचनों की प्रशंसा एवं चारित्र हीन के वचनों की निन्दा करता हुआ, एक कवि क्या ही अच्छा सुभाषित कहता है क्षीरं भाजनसंस्थं ,न तथा वत्सस्य पुष्टिमावहति। आवल्गमानशिरसो , यथाहि मातृस्तनात् पिबतः॥१॥ तद्वत् सुभाषितमयं क्षीरं, दुःशीलभाजनगतं तु। ... न तथा पुष्टिं जनयति, यथाहि गुणवन्मुखात् पीतम्॥२॥ अर्थात् - जिस प्रकार बछड़ा अपनी माता के स्तनों से दुग्ध पीकर शीघ्र ही पुष्टवपु एवं बलवान् हो जाता है, उस प्रकार पात्रस्थ दुग्ध पीकर नहीं हो सकता। यही बात सुभाषित के विषय में है कि दुश्चरित्री के मुँह से सुने हुए सुभाषित वचन, उस प्रकार असर करने वाले नहीं होते, जिस प्रकार सच्चरित्री के मुखारविन्द से सुने हुए असर करते हैं // 2 // चारित्रहीन का चाहे कैसा ही क्यों न अच्छा उपदेश हो, किन्तु जनता की उस पर कदापि अभिरुचि नहीं होती। वह तो उसके कारण उसके उपदेश को भी घृणित समझने लग जाती है, क्योंकि कहा भी है कि शीतेऽपि यत्नलब्धो, न सेव्यतेऽ निर्यथा श्मशानस्थः। शीलविपन्नस्य वचः, पथ्यमपि न गृह्यते तद्वत्॥ अर्थात्-जिस प्रकार शीत से अतीव पीड़ित हुआ भी कोई विचारशील मनुष्य, श्मशानस्थ अग्नि का सेवन नहीं करता, उसी प्रकार आचारहीन मनुष्य के हितरुप सत्यवचन को भी जनता स्वीकार नहीं करती। अतः उपर्युक्त कथन से यह पूर्णतया सिद्ध हो जाता है कि, मनुष्य को चारित्र की अत्यन्त आवश्यकता है। इसके बिना सब गुण शुष्क रहते हैं। केवल औषधी का ज्ञान और विश्वास, रोग को दूर नहीं कर सकता। रोग दूर तभी होगा, जब कि औषधी का सेवन किया जाएगा। चारित्र क्रियारूप है, अतः कर्म रोग को यही दूर कर सकता है। चारित्र के भेद और दशवैकालिक ____ चारित्र के गृहस्थधर्म और मुनिधर्म इस प्रकार दो भेद हैं। गृहस्थ धर्म का वर्णन मुख्यतः उपासकदशांग आदि सूत्रों में किया गया है। अतः जिज्ञासुओं को वहां देखना चाहिए और मुनि धर्म का वर्णन आचारांग, सूत्रकृतांग और इस प्रस्तुत दशवैकालिक आदि बहुत से सूत्रों में किया गया है। वस्तुतः इनकी रचना प्रायः मुनि धर्म को लक्ष्य करके की गई है, किन्तु आचारांग आदि का वर्णन बहुत विस्तृत xvi
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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