________________ प्रस्तावना अक्षय सुख के साधन प्रिय सुज्ञपुरुषो ! इस अनादि अनंत संसार में यह जीवात्मा, कर्मों के चक्कर में पड़कर इतस्तत: गेंद की तरह भ्रमण कर रही है; इसकी कहीं पर भी स्थिति नहीं होती। यह कभी नरक गति में जाती है, तो कभी तिर्यंच गति में एवं कभी मनुष्य गति में जाती है, तो कभी देवगति में। इस इधर-उधर की भागदौड़ में यह आत्मा महान् दुःख भोग रही है, इसे कहीं पर भी सुख नहीं मिलता। नरक और तिर्यंच गति में तो स्पष्ट रूप से दुःख है ही, केवल मनुष्य और देवगति में सुख अवश्य है; किन्तु वह भी नाम मात्र का है, उसमें भी दुःख मिला हुआ है और तत्सम्बन्धी स्थिति को भोग लेने के बाद तो फिर दुःख ही दुःख है। अतः दयानिधि तीर्थंकर देवों ने, जहाँ पर किसी भी प्रकार का दुःख नहीं है, ऐसे अद्वितीय अक्षय सुखधाम मोक्ष की प्राप्ति के लिए, जीवात्मा को सम्यग् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक्चारित्र, ये तीन साधन बताए हैं। इन्हें 'रत्नत्रय' भी कहते हैं, क्योंकि वस्तुतः यही वास्तविक सुख के दातारत्न हैं। इनके द्वारा अनेकानेक भव्य जीव पूर्व काल में मोक्ष सुख प्राप्त कर चुके हैं। साधनों का स्वरुप ___यहाँ प्रसंगवश संक्षेप रूप में, उक्त साधनों का यत्किंचित् स्वरुप भी बताया जाता है। इस संसार में जीव और अजीव, ये दो द्रव्य पूर्णतया सिद्ध हैं। संसार में सर्वत्र इन्हीं दोनों द्रव्यों की विभूति दृष्टिगोचर होती है। प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य धर्म से युक्त है। अतएव प्रत्येक पदार्थ मूल भाव को ध्रुव रखकर, पूर्वाकृति से उत्तराकृति में परिवर्तित होता हुआ दिखाई देता है। जैसे कि एक बालक बाल्यावस्था से युवावस्था में और युवावस्था से वृद्धावस्था में जाता है। जैन शास्त्रकार इसी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य को नित्य और अनित्य रूप से मानते हैं। यही 'अनेकान्त वाद' है। अतः उक्त दोनों द्रव्यों की पूर्णतया सत्य-श्रद्धा को सम्यग्दर्शन और यथार्थ सत्य ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं तथा इन दोनों द्रव्यों के पर्यायों से उत्पन्न होने वाले, राग-द्वेष के भावों की निवृत्ति और अहिंसा आदि विशुद्ध भावों की प्रवृत्ति को 'सम्यक्-चारित्र' कहते हैं। चारित्र का प्राधान्य - जिस प्रकार दधि का सार नवनीत है, उसी प्रकार शास्त्रकारों ने सम्यग्-दर्शन और सम्यग्ज्ञान का अन्तिम सार सम्यक् चारित्र प्रतिपादन किया है, क्योंकि "चयरित्तकरं चारित्तं होइ"-कर्मों के चय XV