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________________ पूइपिन्नागं-सरसों की खली-ये सब आमगं-कच्चे पदार्थ, साधु परिवजए-सर्वथा छोड़ दे। मूलार्थ- उसी प्रकार चावलों का आटा, शुद्धोदक, मिश्रित जल, तिलों का आटा, सरसों की खल, ये सब यदि कच्चे हों तो साधु कदापि न ले। टीका- इस गाथा में यह वर्णन किया गया है कि, चावलों का आटा, धोवन का जल, मिश्रित जल, तिलों का आटा और सरसों की खल, ये सब यदि सर्वथा अचित्त न हुए हों तो साधु इनको त्याग दे अर्थात् इनको ग्रहण न करे। उक्त पाठ से यह मालूम होता है कि किसी देशादि में कभी कच्चे धान्य के पीसने की प्रथा रही हो। सूत्र में जो तप्तनिर्वृत शब्द है, उसका अर्थ मिश्रित जल है। यहाँ मिश्रित जल से दो अभिप्राय हैं / एक तो यह है कि, उष्ण जल बहुत देर का होकर मर्यादा से बहिर्भूत होकर फिर शीत-भाव को प्राप्त हो गया हो अर्थात् सचित हो गया हो। दूसरा यह कि, कच्चा जल गर्म होने के लिए अग्नि पर तो रख दिया है, परन्तु शीघ्रता या अन्य किसी कारण वश अग्नि का भलीभाँति स्पर्श हुए बिना मंदोष्ण ही उतार लिया गया हो। मंदोष्ण जल न तो सर्वथा संचित्त ही होता है और न सर्वथा अचित्त ही। यद्यपि आटा कितने काल के पश्चात् अचित्त हो जाता है इस का स्पष्ट विधान किसी सूत्र में नहीं वर्णन किया गया है तथापि परंपरा से एक मुहूर्त के पश्चात् अचित्त होना माना जाता है। जिस प्रकार तत्काल के पीसे हुए आटे के लेने का निषेध है, इसी प्रकार उसके स्पर्श से अन्य पदार्थ लेने का भी निषेध है। धोवन का जल और तप्त शीतल जल के विषय में यह बात है कि. इनके ग्राह्य और अग्राह्य का निर्णय ऋत के अनुसार बद्धि से विचार करके करना चाहिए। इसी प्रकार सरसों की खल के विषय में भी समझ लेना चाहिए। . यदि उपर्युक्त तण्डुलपिष्ठ आदि पदार्थों में थोड़ी अप्रासुकता की आशङ्का हो जाए तो साधु को ये पदार्थ कदापि नहीं ग्रहण करने चाहिए, क्योंकि आशङ्का युक्त पदार्थों के लेने से आत्मा में दुर्बलता आती है और दुर्बलता आते ही आत्मा उन्नति-पथ से गिरकर, पतन की ओर अग्रसर होती चली जाती है। उत्थानिका- अब अन्य सचित्त फलादि के विषय में कहते हैंकविटुं माउलिंगं च, मूलगं मूलगत्ति। आमं असत्थपरिणयं, मणसावि न पत्थए॥२५॥ कपित्थं मातुलिंगं च, मूलकं मूलव( क)र्तिकाम्। आममशस्त्रपरिणताम् , मनसाऽपि न प्रार्थयेत्॥२५॥ पदार्थान्वयः-आम-अपक्व, तथा असत्थपरिणयं-अशस्त्र-परिणत कविटुं-कोठ फल की माउलिंग-मातुलिङ्ग फल की मूलगं-मूली की च-और मूलगत्तिअं-मूल कर्तिका की मणसावि-मन से भी न पत्थए-इच्छा न करे। मूलार्थ- मोक्षाभिलाषी साधु, कच्चे और अग्नि आदि शस्त्र से अपरिणत बिजोरा, मूली और मूल कर्तिका की मन से भी इच्छा न करे। 188] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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