SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुछ न कुछ अपक्वता बनी ही रहती है। इसलिए सन्देह युक्त-मिश्र भावोपेत पदार्थ साधु को कदापि नहीं लेना चाहिए। ___ उत्थानिका- अब अपक्व बदरीफल आदि के विषय में कहते हैंतहा कोलमणुस्सिन्नं, वेलुअंकासवनालि। तिलपप्पडगं नीम, आमगं परिवज्जए॥२३॥ तथा कोलमननुत्स्विन्नम्, वेणुकंकाश्यपनालिकाम्। तिलपर्पटकं निम्बम्, आमकं परिवर्जयेत्॥२३॥ ___ पदार्थान्वयः- तहा-इसी प्रकार साधु अणुस्सिनं-अग्नि आदि से अपक्व आमगंकच्चे कोलं-बदरी फल, वेलुअं-वंश-करेला, तथा कासवनालिअं-श्रीपर्णी वृक्ष के फल, तिलपप्पडगं-तिल-पर्पट-तिल पापड़ी एवं नीम-नीम वृक्ष के फल भी परिवज्जए-छोड़ दे। ___ मूलार्थ- इसी प्रकार साधु को अग्नि आदि शस्त्र से अपरिणत-कच्चे बदरी फल, वंश करेला, श्रीपर्णी फल, तिल पापड़ी, और नीम की निंबोली (नीम के फल) आदि भी नहीं लेने चाहिए। टीका-जो बेर आदि फल, अग्नि और पानी के योग से विकारान्तर को प्राप्त नहीं हुए हैं, वे साधु को सर्वथा त्याज्य हैं। कारण यह कि कोई पदार्थ केवल अग्नि द्वारा पकाया जाता है और कोई पदार्थ अग्नि और पानी दोनों द्वारा पकाया जाता है। इसलिए जो सचित्त फल-पदार्थ 'वह्वयुदकयोगेनानापादितविकारान्तरम्''अग्नि और उदक के योग से विकारान्तर को प्राप्त नहीं हुए हैं वे साधु के सर्वथा लेने योग्य नहीं हैं। साधु सचित्त पदार्थों का सर्वथा त्यागी होता है। हिन्दी भाषा में अस्विन्न' शब्द का स्पष्ट अर्थ होता है-बिना रँधा। पाठक महोदय सूत्र के प्रत्येक शब्द का भाव, जो स्पष्ट से स्पष्ट और सरल से सरल हो, उसे अपनी मातृभाषा द्वारा हृदयंगम करें। यदि मातृभाषा में स्पष्ट रूप से भाव के जाने बिना ही कार्य में प्रवृत्ति की जाएगी, तो वह अर्थ के स्थान में अनर्थ को ही करने वाली होगी। उत्थानिका-फिर इसी सचित्त विषय पर कहा जाता है:तहेव चाउलं पिटुं, वियडं वा तत्तनिव्वुडं। तिलपिट्ठपूइपिन्नागं , आमगं परिवज्जए॥२४॥ तथैव ताण्डुलं पिष्टम्, विकटं वा तप्तनिर्वृतम्। तिलपिष्टं पूतिपिण्याकम्, आमकं परिवर्जयेत्॥२४॥ पदार्थान्वयः-तहेव-उसी प्रकार चाउलं-चावलों का पिटुं-आटा, तथा वियडंशुद्धोदक धोवन वा-अथवा तत्तनिव्वुडं-तप्तनिवृत जल जो उष्ण जल मर्यादा से बाहर होने के कारण ठंडा होकर फिर सचित्त हो गया है- अथवा मिश्रित जल तिलपिढें-तिलों का आटा,तथा पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 187
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy