________________ पदार्थान्वयः-विशुद्ध, संयमधारी साधु रूक्खस्स-वृक्ष का वा-अथवा तणगस्स-तृण का वावि-अथवा अन्नस्स-अन्य किसी दूसरी हरिअस्स-हरितकाय वनस्पति का आमगं-कच्चा तरुणगं वा पवालं-नवीन प्रवाल परिवजए-छोड़ दे, ग्रहण न करे। मूलार्थ- वृक्ष का, तृण का तथा अन्य किसी दूसरी वनस्पति का, तरुण प्रवाल (नई कोंपल) यदि कच्चा है-शस्त्र-परिणत नहीं है तो मुनि उसे त्याग दे। टीका- इस. गाथा में वृक्ष आदि सभी वनस्पतियों के नवीन प्रवाल के अर्थात् उगते हए नवीन अँकर के. यदि वह सचित्त है तो लेने का निषेध किया है। न लेने का कारण वही है कि प्रथम अहिंसा महाव्रत का भङ्ग होता है। यद्यपि पूर्व सूत्रों में शालूक आदि कन्दों का वर्णन किया जा चुका था तथापि इस स्थान पर पल्लव (नया निकला हुआ पत्ता, कोंपल) का अधिकार होने से उन सभी का ग्रहण यहाँ पर भी हो जाता है। उत्थानिका- फिर इसी विषय का प्रतिपादन किया जाता हैतरूणिअंवा छिवाडिं, आमिअंभज्जिअंसइं। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥२२॥ तरुणिकां वा छिवाडिं, आमिकां भर्जितां सकृत्। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥२२॥ __पदार्थान्वयः- साधु को यदि कोई तरुणि-तरुण-जिस में अभी तक बीज ठीकठीक न पड़े हों- ऐसी छिवाडिं-मुद्ग-मूंग आदि की फली आमिअं-कच्ची वा-अथवा सइं-एक बार की भजिअं-भूनी हुई-देने लगे ते साधु दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि तारिसं-इस प्रकार का आहार मे-मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है। मूलार्थ-यदि कोई भावुक स्त्री, जिसमें अभी तक अच्छी तरह दाने न पड़े हों, ऐसी मूंग चौला आदि की फलियाँ सर्वथा कच्ची अथवा एक बार की भूनी हुई देने लगे , तो साधु देने वाली से कह दे कि, यह आहार मुझे नहीं कल्पता है। टीका- इस गाथा में यह कथन है कि, जो मूंग आदि की फलियाँ सर्वथा कच्ची हों या एक बार की भूनी हुई हों, उन्हें यदि कोई स्त्री देने लगे तो साधु उसी समय उस देने वाली से कह दे कि, यह आहार सर्वथा शस्त्र-परिणत-प्रासुक न होने से मुनि वृत्ति के सर्वथा अयोग्य है। अतः मैं इसे किसी भी तरह नहीं ले सकता। गाथा में आया हुआ 'छिवाड़ि' शब्द देशी प्राकृत का विदित होता है। क्योंकि इसका संस्कृत-रूप वृत्तिकार एवं कोषकार दोनों ने ही नहीं लिखा है। छिवाड़ि-मितिमुद्गादिफलिम्' इतिवृत्तिः। 'छिवाडि- (फली) - झाड़नी छाल' इति अर्द्धमागधी गुजरातीकोषः। छिवाड़ी शब्द समुच्चय फालियों का वाचक है। अतः इससे मूंग की फली, चौलों की फली, चनों की फली (बूंट) आदि सभी फलियों का ग्रहण हो जाता है। एक बार की सिकी हुई फलियों के लेने का निषेध इस लिए किया है कि-एक बार के अग्नि के संस्कार से पूर्णतया पक्वता नहीं आती, 186] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्