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________________ यह उप्पलं पउमं वावि' और 'तं भवे भत्तपाणं तु'-१८-१९ गाथा- युग्म, वृत्तिकार ने (टीकाकार ने) अपनी टीका में छोड़ दिया है। परन्तु लिखित प्रतियों में प्रायः यह गाथा पाई जाती है, अतः यहाँ पर भी उद्धत कर दी गई है। वस्तुतः गाथाओं के परस्पर के सम्बन्ध की दष्टि से इस गाथा का होना आवश्यक भी प्रतीत होता है। क्योंकि 'संलुंचिया'-'संलुच्य' और 'संमद्दिया'- 'संमृद्य' शब्दों के साथ 'संघट्टिया' 'संघट्य' का होना अत्यन्त ही उचित है। अन्यथा विषय अधूरा-सा रह जाता है तथा 'संघट्टा' शब्द जो सर्वत्र सुप्रसिद्धि में आया हुआ है, वही इसी गाथा के आधार पर जान पड़ता है। इससे भी इस गाथा की प्राचीनता पर प्रकाश पड़ता उत्थानिका- अब सूत्रकार फिर वनस्पति के ही विषय में कहते हैंसालुअं वा विरालि, कुमुअं उप्पलनालिअं। मुणालिअंसासवनालिअं, उच्छुखंडं अनिव्वुडं॥२०॥ शालूकं वा विरालिकाम्, कुमुदमुत्पलनालिकाम् / मृणालिकां सर्षपनालिकाम्, इक्षुखण्डमनिर्वृतम् // 20 // - पदार्थान्वयः- अनिव्वुडं-जो शस्त्र से परिणत नहीं हैं ऐसे सालुअं-कमल के कन्द को वा-अथवा विरालिअं-पलाश केकन्द को अथवा कुमुअं-चन्द्र-विकाशी कमल की नाल को अथवा उप्पलनालिअं-नीलोत्पल कमल की नाल को अथवा मुणालिअं-कमल के तन्तु को अथवा सासवनालिअं-सरसों की नाल को अथवा उच्छुखंडं-इक्षुखण्ड को (साधु ग्रहण न करे)। - मूलार्थ- कमल का कन्द, पलाश का कन्द, श्वेत कमल की नाल, नील कमल की नाल, कमल के तन्तु, सरसों की नाल और गन्ने की गनेरियाँ, ये सब सचित्त पदार्थ साधु के लिए अग्राह्य हैं। टीका-इस गाथा में यह वर्णन है कि-शालूक-कमल कन्द, विरालिका-पलाश कन्द, कुमुद-चन्द्र-विकाशी कमल की नाल, उत्पल-नालिका-नील कमल की नाल, मृणालिकाकमल के तंतु , सर्षपनालिका-सरसों की नाल, इक्षुखण्ड- गन्ने की गनेरियाँ आदि वनस्पति, जो सचित्त हैं-अप्रासुक हैं, वे साधु के लिए किसी भी अवस्था में लेने योग्य नहीं है। कारण कि वनस्पति में किसी में असंख्यात और किसी में अनन्त जीव होते हैं। अतः सचित्त वनस्पति साधुओं के लिए सर्वथा अभक्ष्य है। साधु जब साधु-वृत्ति धारण करता है, तब प्रथम अहिंसा महाव्रत धारण करते हुए तीन करण और तीन योग से त्रस स्थावर सभी जीवों की सभी प्रकार की हिंसा का परित्याग करता है। .. उत्थानिका-फिर इसी विषय में कहते हैंतरुणगं वा पवालं,रूक्खस्स तणगस्स वा। अन्नस्स वावि हरिअस्स, आमगं परिवज्जए॥२१॥ तरुणकं वा प्रवालं, वृक्षस्य तुणकस्य वा। अन्यस्य वाऽपि हरितस्य, आमकं परिवर्जयेत्॥२१॥ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 185
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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