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________________ चाहिए। न लेने का कारण वही है जो पूर्व सूत्र के भाष्य में कहा जा चुका है अर्थात् ऐसी अवस्था में आहार लेने से एकेन्द्रिय-जीवों की विराधना होने के कारण प्रथम अहिंसा-महाव्रत दूषित हो जाता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, पूर्वोक्त पदार्थों को संघट्टन करती हुई स्त्री से आहार लेने का निषेध करते हैं:उप्पलं पउमं वावि, कुमुअंवा मगदंति। अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संघट्टिया दए॥१८॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥१९॥युः उत्पलं पद्म वाऽपि, कुमुदं वा मगदन्तिकाम्। अन्यद्वा पुष्पसचित्तं, तच्च संघट्य दद्यात्॥१८॥ तद्भवैद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम् / ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥१९॥ पदार्थान्वयः- कोई स्त्री उप्पलं-उत्पल कमल वा-अथवा पउमं-पद्म केमल वाअथवा कुमुअं-चन्द्र-विकाशी कमल वि-तथा मगदंतिअं-मगदन्तिका-मालती पुष्प वा-अथवा अन्नं-अन्य कोई पुष्फसच्चित्तं-सचित्त पुष्प हो तं-उसको संघट्टिया-संघट्टित करके दए-आहारपानी दे तु-तो तं-वह भत्तपाणं-अन्न-पानी संजयाण-साधुओं को अकप्पिअं-अकल्पनीय भवेहोता है दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि, तारिसं-इस प्रकार का आहार मे-मुझे न-नहीं कप्पई-कल्पता है। ___ मूलार्थ- यदि कोई स्त्री सूत्रोक्त नीलोत्पल आदि सचित्त पुष्यों को संघट्टन करके आहार-पानी दे, तो साधुन ले और देने वाली से कह दे कि यह आहार-पानी मेरे योग्य नहीं है, अतः मैं नहीं ले सकता। टीका- इस सूत्र में पूर्वोक्त नीलोत्पल आदि सचित्त पदार्थों को संघट्टन करके कोई स्त्री आहार-पानी देने लगे, तो साधु को लेने का निषेध किया गया है। कारण यही है कि, सचित्त पदार्थों के संघट्टन से जीवों की विराधना होती है। उससे प्रथम महाव्रत दूषित हो जाता है। ___ यहाँ एक बात और है, वह यह है कि, जिस प्रकार इन सूत्रों में वनस्पति का अधिकार कहा गया है, ठीक उसी प्रकार अप्काय आदि के विषय में भी समझ लेना चाहिए। अर्थात् जितने भी सचित्त पदार्थ कहे गए हैं उन सभी के संघट्टन से आहार-पानी लेने का निषेध है। जैन साधु वनस्पति के समान ही जल और अग्नि आदि के जीवों की रक्षा का भी महान् प्रयत्न करते - हैं। जीव-रक्षा के विषय में जितनी ही अधिक सावधानी रक्खी जाएगी उतनी ही अधिक सुन्दरता से समितियों की समाराधना हो सकेगी। 184] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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