SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देने लगे तो साधु को वह आहार-पानी नहीं लेना चाहिए और उसे कह देना चाहिए कि-यह आहार पाना मेरे योग्य नहीं है। अतः मैं नहीं ले सकता। कारण कि-ये नीलोत्पल आदि पदार्थ जीव-सहित होते हैं। अतः तद्गत जीवों को पीड़ा होती है। साधु-वृत्ति यत्ना-प्रधान होती है, अतः हर हालत में साधु को यत्ना का ध्यान रहना चाहिए। इस प्रकार आहार लेने से अयत्ना की वृद्धि स्वत:सिद्ध होती है। साधु-धर्म की अहिंसा का सम्बन्ध कुछ मनुष्य, पशु, पक्षी, आदि जगत के जीवों से नहीं है; उसका सम्बन्ध तो सांसारिक लोगों की स्थूल दृष्टि में नगण्य लगने वाले वनस्पति-जगत के जीवों से भी हैं। वह सम्बन्ध भी किसी भेदभाव से नहीं, एकरूप से है। साधु की, संसार के सभी छोटे बड़े जीवों के साथ परम मैत्री है, जो मरते दम तक अक्षुण्ण बनी रहती है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, पूर्वोक्त पदार्थों को मर्दन करती हुई स्त्री से आहार लेने का निषेध करते हैं: उप्पलं परमं वावि, कुमुअंवा मगदंति। अन्नं वा पुष्फसच्चित्तं, तं च संमद्दिया दए॥१६॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥१७॥युः उत्पलं पद्मं वाऽपि, कुमुदं वा मगदन्तिकाम्। अन्यद्वा पुष्पसचित्तं, तच्च संमृद्य दद्यात्॥१६॥ तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम् / ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥१७॥ * पदार्थान्वयः- यदि दातार स्त्री उप्पलं-नीलोत्पल कमल, अथवा पउमं-पद्म कमल वावि-अथवा कुमुअं-चन्द्रविकाशी कमल वि-तथा मगदंतिअं-मालती के पुष्प वा-अथवा अन्नंअन्य कोई पुष्फसच्चित्तं-सचित्त पुष्प हो तं-उसको संमद्दिया-संमर्दन करके दए-आहार-पानी दे तु-तो तं-वह भत्तपाणं-अन्न-पानी संजयाण-साधुओं को अकप्पिअं-अकल्पनीय भवे-होता है, (अतः साधु) दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि, तारिसं-इस प्रकार का अन्नपानी मे-मुझे न-नहीं कप्पई-कल्पता। . मूलार्थ- यदि कोई स्त्री पूर्वोक्त नीलोत्पल आदि सचित्त पुष्यों को संमर्दन करके-दल-मल करके आहार-पानी दे, तो साधु को वह आहार पानी नहीं लेना चाहिए और कह देना चाहिए कि यह आहार मेरे योग्य नहीं है, अतः बहन ! मैं नहीं ले सकता। .. टीका- पूर्व सूत्र में जिस प्रकार छेदन करने के विषय में कहा गया है उसी प्रकार इस सूत्र में संमर्दन करने के विषय में कहा है अर्थात् पूर्वोक्त उत्पल, पद्म आदि सचित्त पुष्पों को संमर्दन करके यदि कोई स्त्री आहार-पानी देने लगे तो साधु को वह दातव्य पदार्थ नहीं लेना पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 183
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy