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________________ अनुदारचेता महाशय झिड़क-झिड़काकर एक दो खरी-खोटी सुन-सुनाकर बिना दिए ही बेचारों को चलते कर देता है। अतः उपर्युक्त दोनों गतियों द्वारा जब पूर्वोक्त द्वारस्थित याचक द्वार पर से लौट जाएं; तब भावितात्मा साधु यत्नपूर्वक उस घर में प्रवेश करे और जिस अन्न-पानी आदि वस्तु की आवश्यकता हो, वह यदि योग्य विधि से मिले तो साधु ग्रहण करे- अन्यथा नहीं। भाव यह है कि- साधु की जो भी क्रिया हो, वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सर्वतोमुखी दृष्टि से पूर्णतया शास्त्रसंमत-शुद्ध ही हो। मनमाने पथ पर चलकर साधु को कोई काम करना उचित नहीं है। जहाँ मनमानी नीति चल जाती है, वहाँ अपने और दूसरों के विनाश की आशङ्का सर्वथा निश्चित है। शास्त्रीय परतंत्रता ही वास्तविक स्वतंत्रता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार परपीड़ा का निषेध करते हुए, वनस्पति-अधिकार के विषय में कहते हैं: उप्पलं पउमं वावि, कुमुअंवा मगदंति। अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तंच संलुंचिया दए॥१४॥ ... तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥१५॥युः उत्पलं पद्मं वाऽपि, कुमुदं वा मगदन्तिकाम्। अन्यद्वा पुष्पसचित्तं, तच्च संलुच्य दद्यात्॥१४॥ तद्भवैद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम् / ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥१५॥ पदार्थान्वयः- उप्पलं-नीलोत्पल कमल अथवा पउमं-पद्म कमल वावि-अथवा कुमुअं-चन्द्रविकाशी श्वेत कमल मगदंतिअं-मगदन्तिका-मालती पुष्प वा-अथवा अन्नं-अन्य कोई पुष्फसचित्तं-सचित्त पुष्प हो तं-उसको संलुंचिया-छेदन कर दए-आहार-पानी दे तु-तो तं-वह भत्तपाणं-अन-पानी संजयाण-साधुओं को अकप्पिअं-अकल्पनीय भवे-होता है (अतः साधु) दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि तारसिं-इस प्रकार का आहार मे-मुझेननहीं कप्पई-कल्पता है। मूलार्थ-यदि कोई दान देने वाली स्त्री , उत्पल-नीलकमल को, पद्म रक्तकमल को, कुमुद-चन्द्र-विकाशी श्वेत कमल को, मगदन्तिका-मालती पुष्प को तथा अन्य भी ऐसे ही सचित्त पुष्पों को छोदन भेदन करके आहार-पानी देतो वह आहार-पानी साधुओं को अकल्पनीय होता है। अतःदेने वाली से स्पष्ट कह देना चाहिए कि- यह आहारपानी मेरे योग्य नहीं है, इसलिए मैं नहीं ले सकता हूँ। टीका- इस गाथा में यह वर्णन है कि-जब साधु भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में जाए, तब वहाँ देखे कि कोई स्त्री, नीलोत्पल कमल आदि सूत्र-पठित सचित्त पुष्पों को छेदनभेदन तो नहीं कर रही है। यदि वह स्त्री (उपर्युक्त पदार्थों को छेदन करती हुई) आहार-पानी 182] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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