________________ वनीपकस्य वा तस्य, दायकस्योभयो / अप्रीतिः स्याद् भवेत्, लघुत्वं प्रवचनस्य वा॥१२॥ . पदार्थान्वयः- ऐसा न करने से सिया-कदाचित् तस्स-उस वणीमगस्स-याचक को वा-अथवा दायगस्स-दातार को वा-अथवा उभयस्स-दाता और याचक दोनों को अप्पत्तिअंअप्रीति वा-और पवयणस्स-भगवत्प्रवचन की लहुत्तं-लघुता हुज्जा-होगी। मूलार्थ-याचकों को लाँघकर जाने से एक तो याचकों को, दाता को तथा याचक और दाता दोनों को अप्रीति होगी और आर्हत् प्रवचन की लघुता-निन्दा होगी। ___टीका-यदि साधु भिक्षार्थ द्वार पर खड़े हुए याचक लोगों को लाँघकर भीतर घर में जाएगा, तब एक तो साधु की तरफ से याचक और दाता दोनों को अप्रीति होगी। वे अवश्य सोचेंगे कि-देखो, यह कैसा भुखमरा साधु है ? कैसे ऊपर तले पड़ता हुआ भीतर घुसा चला आता है / क्या गाँव में अकाल पड़ रहा है ? क्या इसे और कहीं भिक्षा नहीं मिलती? जो आँख बंद किए-देखेन भाले-यों ही अन्धे की तरह भीतर चला जा रहा है। दूसरे-प्रवचन की लघुता होगी। देखने वाले कहेंगे कि-लो भाई! ये जैन साधु देख लो। कैसे सभ्य शिरोमणि हैं! यों नहीं कि माँगने वाले खड़े हैं, कुछ थोड़ा बहुत संतोष रक्खे। क्या इनके शास्त्रों का यही कथन है कि चाहे कुछ भी होता रहे, बस अपनी पेट-पूर्ति तो कर ही लेनी चाहिए? तीसरे-याचकों के दान के अन्तराय होने का दोष लगता है, क्योंकि भीतर घर में जाने से दातार गृहस्थ तो, साधु को दान देने लग जाएगा और वे बेचारे याचक, दानाभाव से खिन्नचित्त हुए-निराश हुए, बस झाँकते ही रह जाएँगे। उत्थानिका- अब सूत्रकार, फिर आगे क्या करे ? इस विषय में कहते हैंपडिसेहिए व दिने वा, तओ तम्मि नियत्तिए। उवसंकमिज भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए॥१३॥ प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा, ततस्तस्मिन् निवृत्ते। उपसंक्रामेद् भक्तार्थम्, पानार्थं वा संयतः॥१३॥ - पदार्थान्वयः-दिन्ने-दान देने पर व-अथवा पडिसेहिए-सर्वथा निषेध कर देने पर तओ-उस द्वार आदि स्थान से तम्मि-उन याचकों के नियत्तिए-लौट जाने पर संजए-साधु भत्तट्ठा-अन्न के वास्ते व-तथा पाणट्ठाए-पानी के वास्ते उवसंकमिज्जा-भीतर घर में चला जाए। . मूलार्थ-गृह स्वामी के द्वारा दान देने अथवा निषेध कर देने के बाद जब वे याचक लोग उस स्थान से लौट जाएँ; तब साधु आहार-पानी आदि के लिए उक्त घर में प्रवेश करे। .. टीका- संसार में माँगने वाले याचकों की दो ही गतियाँ होती हैं। कोई तो उदार चेता दातार-गृहस्थ उनको प्रेमपूर्वक यथोचित दान देकर विसर्जन कर देता है और कोई पञ्चमाध्ययनम् / हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 181