________________ पदार्थान्वयः- भत्तट्ठा-अन्न के वास्ते व-एवं पाणट्ठाए-पानी के वास्ते (गृहस्थ के द्वार पर) उवसंकमंतं-आते हुए-या गए हुए समणं-श्रमण वावि-अथवा माहणं-ब्राह्मण किविणंकृपण वा-अथवा वणीमगं-दरिद्र कोई हो तं-उसको अइक्कमित्तु-उल्लंघन करके संजए-साधु न पविसे- (गृहस्थ के घर में) प्रवेश न करे, तथा चक्खुगोअरे-गृह स्वामी की आँखों के सामने न चिट्ठे-खड़ा भी न हो, किन्तु एगंतं-एकान्त स्थान पर अवक्कमित्ता-अवक्रमण करके-जा करके तत्थ-वहाँ चिट्ठिज-खड़ा हो जाए वि-अपि शब्द से, जिस समय कोई दान आदि देता हो उसका सामने भी खड़ा न हो। मूलार्थ-अन्न तथा पानी के वास्ते, गृहस्थ के द्वार पर अपने बराबर से जाते हुए या पहले से पहुँचे हुए-श्रमण, ब्राह्मण, कृपण तथा दरिद्र पुरूषों को लाँघकर साधु गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे तथा गृहस्वामी की आँखों के सामने भी खड़ा न हो, किन्तु एकान्त स्थान पर खड़ा हो जाए। टीका-साधु भिक्षार्थ गाँव में किसी गृहस्थ के यहाँ गया है, परन्तु वहाँ क्या देखता है कि-घर केआगे द्वार पर श्रमण- बौद्ध आदि भिक्षु , ब्राह्मण, कृपण (जो धनी होते हुए भी कृपणता के कारण भिक्षा माँगता है) तथा दरिद्र आदि पुरूषों में से कोई खड़ा हो, तो साधु उसको लाँघ कर गोचरी के लिए घर में न जाए और न ही दान देते हुए गृहस्थ के सामने तथा भिक्षुकों के सामने खड़ा हो। तो क्या करे ? एकान्त स्थान में जहाँ किसी की दृष्टि न पड़ती हो, वहाँ जाकर खड़ा हो जाए। लाँघकर न जाने और सामने न खड़ा होने का सामान्य कारण यह है कि- ऐसा करने से उन भिक्षुक लोगों के हृदय में द्वेष उत्पन्न होता है, उनके हृदय को बड़ी भारी / ठेस पहुँचती है। किसी के हृदय को किसी प्रकार की ठेस पहुँचाना मुनि-वृत्ति के सर्वथा प्रतिकूल है। यहाँ प्रश्न होता है कि-सूत्र में जो याचकों के होने पर साधु को एकान्त स्थान में खड़ा होने की आज्ञा दी है- तो क्या इसका मतलब यह है कि साधु आहार लिए बिना वापिस लौटे ही नहीं ? जब तक याचक खड़े रहें तब तक वहीं पर छिपा हुआ खड़ा रहे और याचकों के जाते ही आहार ग्रहण करे? उत्तर में कहना है कि- यह बात नहीं है। साधु वापिस लौट सकता है। वस्तुतः छिपकर खड़े रहने की अपेक्षा लौट आना ही अच्छा है। यहाँ एकान्त में खड़े होने की जो आज्ञा दी है वह विशेष कारण को लेकर दी है अर्थात् रोगादि के कारण से किसी ऐसी आहार-पानी आदि वस्तु की आवश्यकता हो, जो उस समय उसी घर में मिलती हो, तब वहाँ एकान्त में खड़ा हो सकता है। सूत्र में जो 'श्रमण' शब्द आया है। उससे यहाँ निर्ग्रन्थ आदि प्रति रूप शाक्य आदि मुनियों का ग्रहण है। सूत्रगत 'माहणं वावि' वाक्य में जो 'अवि' शब्द आया है, वह सूचित करता है कि-सूत्र में आए हुए ही श्रमण आदि पुरुषों को लाँघने का निषेध नहीं है, बल्कि किसी प्रकार का कोई भी याचक हो, सभी को लाँघने का निषेध है। __उत्थानिका- अब सूत्रकार स्वयं याचकों को लाँघकर जाने का दोष कहते हैंवणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा। अप्पत्तिअंसिया हुज्जा, लहुत्तं पवयणस्स वा॥१२॥ 180] दशवैकालिकसूत्रम् '[पञ्चमाध्ययनम्