________________ अर्गला परिघं द्वारम्, कपाटं वाऽपि संयतः। अवलम्ब्य न तिष्ठेत्, गोचराग्रगतो. मुनिः॥९॥ पदार्थान्वयः-गोयरग्गगओ-गोचरी के लिए गया हुआ संजए-जीवाजीव की पूर्ण यना करने वाला मुणी-मुनि अग्गलं-अर्गला को फलिहं-कपाट के ढाँकने वाले फलक को दारंद्वार को वा-तथा कवाडंवि-कपाट आदि को भी अवलंबिया-अवलम्बन कर न चिट्ठिज्जा-खड़ा न हो। मूलार्थ-गोचरी के लिए घरों में गया हुआ पूर्ण यत्नावान् साधुआगल को, परिघ को, द्वार को अथवा कपाट आदि को अवलंबन कर खड़ा न होवे। टीका-क्षेत्र-यना के पश्चात् अब सूत्रकार द्रव्य-यत्ना के विषय में कहते हैं:- जब साधु घरों में आहार के लिए जाए, तब वह ये आगे कहे जानने वाले पदार्थों का अवलम्बन करके-सहारा लेकर-न खड़ा हो। वे पदार्थ ये हैं - अर्गल-आगर (जो गोपुर कपाटादि से सम्बन्ध रखने वाली होती है); परिघ (जो नगर द्वारादि से सम्बन्ध रखने वाला एक फलक होता है); द्वार (शाखामय- यह प्रसिद्ध ही है) तथा कपाट (द्वार-यंत्र-किवाड़); अपि शब्द से अन्य भित्ति आदि को ग्रहण किया जाता है। क्यों न खड़ा हो? इसका समाधान है कि-एक तो अवलंबन से जोर पड़ने पर पदार्थ के गिर जाने से असंयम होने की सम्भावना है। दूसरे-ऐसा करने से लघुता का दोष भी होता है अर्थात् धर्म की, शास्त्र की वा उस मुनि की लघुता होती है। देखने वाले लोगों के मन में यह विचार होते हैं कि-देखो यह कैसा साधु है ? कैसे असभ्यता से खड़ा है ? इसका धर्म भी कैसा है ? क्या इसके शास्त्रों में सभ्यता से उठने-बैठने एवं खड़ा होने की भी शिक्षा नहीं है। अरे! जब वही मामूली बातें नहीं हैं, तो फिर क्या डले पत्थर होंगे आदि आदि। सूत्र का संक्षिप्त मननीय सार यह है कि-साधु जब गोचरी के लिए घरों में जाए, तब वहाँ किसी प्रकार की असभ्यता का बरताव न करे। उत्थानिका- अब सूत्रकार द्रव्य-यत्न के बाद भाव-यत्न का वर्णन करते हैंसमणं माहणं वावि, किविणं वा वणीमगं। उवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए॥१०॥ तमइक्कमित्तु न पविसे, न चिट्ठे चक्खुगोअरे। एगंतमक्कमित्ता, तत्थ चिट्ठिज संजए॥११॥युग्मम् श्रमणं ब्राह्मणं वाऽवपि, कृपणं वा वनीपकम्। उपसंक्रामन्तं भक्तार्थम्, पानार्थं वा संयतः॥१०॥ तमतिक्रम्य न प्रविशेत्, न तिष्ठेत् चक्षुर्गोचरे। एकान्तमवक्रम्य , तत्र तिष्ठेत् संयतः॥११॥ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 179