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________________ एकत्र हुए ऊँच-नीच पशु-पक्षी आदि प्राणी मिल जाए, तो साधु उनके सम्मुख न जाए, किन्तु बचकर यत्न के साथ गमन करे। टीका-काल-यत्न के कहे जाने के पश्चात् अब सूत्रकार, क्षेत्र-यत्न के विषय में कहते हैं, जैसे कि-जब साधु भिक्षा के लिए जाए, तब मार्ग में उस को यदि कहीं पर अन्न-पानी के वास्ते इकट्ठे हुए उत्तम-हंस आदि, अधम-काक आदि अच्छे-बुरे नाना प्रकार के जीव मिलें, तो साधु का कर्तव्य है कि वह उनके सम्मुख न जाए; यत्नपूर्वक बच कर निकल जाए। कारण कि साधु के डर से एकत्रित प्राणी उड़ जाएंगे, जिससे साधु को उनके अन्तराय का दोष लगेगा। अन्य भी सहसा भागने-दौड़ने, उड़ने-उड़ाने के कारण हिंसा आदि दोषों की संभावना की जा सकेगी। अतएव अहिंसा की पूर्ण प्रतिज्ञा वाला साधु, मार्ग में जीवों को किसी प्रकार का उद्वेग न पैदा करता हुआ, भिक्षा के लिए जाए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, गोचरी के लिए गया हुआ साधु , कहीं पर न बैठे और धर्म कथा न कहे; इस विषय में कहते हैंगोअरग्गपविट्ठो अ, न निसीइज कत्थइ। कहं च न पबंधिज्जा, चिट्टित्ताण व संजए॥८॥ गोचराग्रप्रविष्टश्च , न निषीदेत् कुत्रचित्। कथां च न प्रबधीयात, स्थित्वा वा संयतः॥८॥ पदार्थान्वयः-गोअरग्गपविट्ठो अ-गोचरी में गया हुआ संजए-साधु कत्थइ-कहीं पर भी न निसीइज्ज-नहीं बैठे व-तथा वहाँ चिट्ठित्ताण-बैठकर कहं च-धर्म-कथा का भी न पबंधिज्जा-विशेष प्रबन्ध नहीं करे। मूलार्थ-गोचरी के लिए गया हुआ साधु,कहीं पर भी न बैठे और ना ही वहाँ बैठकर विशेष धर्मकथा करे। टीका-आहार के लिए गए हुए साधु का परम कर्तव्य है कि वह किसी गृहस्थ आदि के घर में जाकर न बैठे। इतना ही नहीं, किन्तु वहाँ कोई भावुके धर्म-कथा के लिए भी कहें, तो भी धर्म कथा का विस्तार पूर्वक प्रबन्ध न करे अर्थात् घरों में जाकर धर्म-कथा आदि भी न करे, क्योंकि इस प्रकार करने से संयम के उपघात की और एषणा-समिति की विराधना होने की संभावना है। हाँ, यदि कोई गृहस्थ प्रश्न कर ले, तो उस प्रश्न का उत्तर संक्षेप में खड़ाखड़ा ही दे सकता है, बैठकर नहीं। टीकाकार भी कहते हैं 'अनेनैकव्याकरणैकज्ञातानुज्ञा-माह।' अर्थात् एक प्रश्नोत्तर खड़े-खड़े ही संक्षेप में कर सकता है, विस्तार पूर्वक नहीं। सिद्धान्त यह निकला कि आहार के लिए गया हुआ साधु , घरों में धर्म-कथा का विस्तार-पूर्वक प्रबन्ध न करे। उत्थानिका- क्षेत्र-यत्ना के कथन के बाद, द्रव्य-यत्रा के विषय में कहते हैंअग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वावि संजए। . अवलंबिया न चिट्ठिज्जा, गोयरग्गगओ मुणी॥९॥ 178] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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