________________ टीका-गुरू श्री शिष्य को उपदेश करते हैं कि-हे शिष्य ! अकाल-चारी के दोषों को ठीक-ठीक जानकर साधु, भिक्षा का काल होने पर ही भिक्षा के लिए जाए, आलस्य न करे। साधु तो पुरुषार्थी होते हैं। उनकी समस्त क्रियाएँ पुरुषार्थ-युक्त ही होनी चाहिए। जब तक जंघाओं में चलने फिरने की शक्ति बनी हुई है तब तक वीर्याचार का उल्लंघन साधु को नहीं करना चाहिए-अर्थात् साधु मारे आलस्य के अन्य साधुओं की भिक्षा पर पलोथा (चौकड़ी) मार कर न बैठे। अब प्रश्न यह उपस्थित होता जाता है कि- यदि पुरुषार्थ करने पर भी आहार लाभ न हो तो, फिर क्या करना चाहिए ? उत्तर में कहा जाता है कि यदि आहार न मिले तो कोई बात नहीं। साधु को शोक नहीं करना चाहिए, क्योंकि, भिक्षा के लिए जाकर मुनि ने तो अपने वीर्याचार का सम्यक्तया आराधन कर लिया है। टीकाकार भी कहते हैं- 'तदर्थं च भिक्षाटनं नाहारार्थमेवातो न शोचयेत्'-'साधु वीर्याचार के लिए ही भिक्षाटन करता है, केवल आहार के लिए ही नहीं। अतः भिक्षा के न मिलने पर, मन में किसी प्रकार का खेद न करता हुआ साधु, यही शुद्ध विचार करे कि आज भिक्षा न मिली तो क्या हानि है ? मुझे तो इस में भी लाभ ही है। क्या बात है, चलो आज का तप ही सही। ऐसा शुभ अवसर कब कब मिलता है ? इत्यादि शुभ भावनाओं द्वारा क्षुधा आदि परीषहों को सहन करे तथा सूत्र के प्रारम्भ में ही जो 'सइकाले' पद आया है, उसका यह भी अर्थ किया जाता है कि-'स्मृतिकाले' जिस समय धर्मनिष्ठ गृहस्थ भोजन करते समय अतिथि-साधुओं के पधारने की भावना भाते हैं वह समय। विवेकी गृहस्थ यह भावना भाया करते हैं कि, अहा! यह कैसा मङ्गलकारी समय हो कि, यदि कोई अ अतिथि साधु इस समय पधारे तो मुझ सेवक सें यथोचित भोजन ग्रहण करे, क्योंकि वस्तुतः भोजन वही है, जिस में से अपनी इच्छा के अनुसार कुछ भोजन अतिथि-देवता ग्रहण कर ले। इस अर्थ में टीकाकार भी सहमत हैं। वे कहते हैं कि-'स्मृतिकाल एव भिक्षाकालोऽभिधीयते / स्मर्यन्ते यत्र भिक्षुकाः स स्मृतिकालस्तस्मिन् चरेद्भिक्षुः भिक्षार्थं यायात्।' उत्थानिका- काल-यत्न के कथन के बाद अब सूत्रकार, क्षेत्र-यत्न के विषय में कहते हैं तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्ठाए समागया। तं उज्जुअंन गच्छिज्जा, जयमेव परक्कमे॥७॥ तथैवोच्चावचाः प्राणिनः, भक्तार्थं समागताः। तहजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत्॥७॥ .. पदार्थान्वयः- तहेव-उसी प्रकार (गोचरी के लिए जाते हुए साधु को कहीं पर) भत्तट्ठाए-अन्न-पानी के वास्ते समागया-एकत्र हुए उच्चावया पाणा-ऊँच और नीच प्राणी मिल जाएँ तो साधु तं उज्जुअं-उन प्राणियों के सम्मुख न गच्छिज्जा-न जाए, किन्तु जयमेव-यत्नपूर्वक परक्कमे-गमन करे, जिससे उन जीवों को दुःख न पहुँचे।। मूलार्थ-इसी तरह गोचरी के लिए गए हुए साधु को, यदि कहीं पर भोजनार्थ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 177