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________________ मुनि ने पूछा कि-'क्यों मुने ! क्या बात है ? भिक्षा मिली कि नहीं ? उत्तर मिला अरे ! यहाँ कहाँ भिक्षा धरी है ? यह गाँव थोड़ा ही है, जो यहाँ भिक्षा मिले। यह तो स्थण्डिल है; सुन-सान जंगल है। पच्छक मनि ने कहा-महात्मन! ऐसा न कहो। पहले तो तम प्रमाद से या स्वाध्यायादि के लोभ से भिक्षा-काल को लाँघ देते हो। देखते तक नहीं कि यह भिक्षा का समय है या नहीं। बतलाओ; असमय में भिक्षा कैसे मिल सकती है ? भिक्षा तो भिक्षा के समय पर ही मिला करती - है। बँधु ! अब अकाल में भिक्षार्थ जाने से क्यों तुम अपने आपको, अत्यन्त भ्रमण से वा क्षुधा आदि की पीड़ा से क्लेशित करते हो और क्यों भगवदाज्ञा लोपकर दैन्य भाव से, विचारे निर्दोष गाँव की निन्दा करते हो? इसमें गाँव का क्या दोष है ? जो दोष है वह सब तुम्हारे अकाल में जाने का है। अपने आपको देखो-व्यर्थ किसी को दोष मत दो। तात्पर्य यह है कि अकाल में गोचरी आदि क्रिया करने से, दोष ही दोष प्राप्त होते हैं-गुण तो एक भी नहीं। समय का विचार न करने वाले महानुभावों को गुण कैसे मिल सकते हैं ! यदि ऐसे विवेक-भ्रष्ट मनुष्य ही सद्गति, सुखी कहलाएँ तो फिर दुःखी कौन कहलाएगा ? . बहुत से अर्थकार इस सूत्रका अर्थ 'अकाल में भिक्षा के लिए जाएगा तो अपने आपको दुःखी करेगा और गाँव की निन्दा करेगा' इस प्रकार भविष्यत्काल परक करते हैं, अर्थात् भविष्यत्काल की क्रियाओं का प्रयोग करते हैं। परन्तु सूत्र में 'चरसि' आदि क्रिया-पद सब वर्तमान लट् लकार के मध्यम पुरुष के ही हैं, भविष्यत्काल का कोई भी प्रत्यय नहीं है। अतः उनका वह अर्थ उपयुक्त नहीं लगता। वर्तमान काल का ही अर्थ ठीक है। इस विषय को जो यह दृष्टान्त का रूपक दिया है, वह बालबुद्धि शिष्यों के सद्यः परिज्ञान के लिए दिया है। दृष्टान्त की शैली अतीव उत्तम है; इसके द्वारा गहन से गहन विषय भी बड़ी सरलता से समझाए जा सकते हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार, यदि भिक्षोचित समय पर जाने पर भी भिक्षा न मिले, तो फिर क्या करना चाहिए ? इस विषय में कहते हैं सइ काले चरे भिक्खू, कुज्जा पुरिसकारिअं। अलाभुत्ति न सोइज्जा, तवुत्ति अहिआसए॥६॥ सति काले चरेद्भिक्षुः, कुर्यात् पुरुषकारम्। अलाभ इति न शोचयेत् , तप . इत्यधिसहेत॥६॥ पदार्थान्वयः-भिक्खु-भिक्षु काले-भिक्षा योग्य काल के सइ-होने पर चरे-भिक्षा के लिए जाए पुरिसकारिअं-पुरुषकार-पराक्रम कुज्जा-करे, यदि अलाभुत्ति-लाभ नहीं हो तो फिर न सोइज्जा-शोक न करे, किन्तु तवुत्ति-कोई बात नहीं, यह अनशन आदि तप ही हो गया हैऐसा विचार कर क्षुधा आदि परीषह को अहिआसए-सहन करे। मूलार्थ-गुरु कहते हैं कि हे मुने ! भिक्षुक भिक्षा का काल होने पर अथवा स्मृति-काल होने पर ही भिक्षा के लिए जाए और एतदर्थ यथोचित पुरुषार्थ करे। यदि भिक्षा न मिले तो शोक न करे, किन्तु अनशन आदि तप ही हो गया है-ऐसा विचार कर क्षुधा आदि परीषह को सहन करे। 176] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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