SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी मूलार्थ- जिस ग्राम में जो भिक्षा का समय हो, उसी समय में साधु को भिक्षा के लिए उस गाँव में जाना चाहिए और स्वाध्याय आदि का समय होते ही वापिस लौट आना चाहिए। साधु , अकालं को छोड़कर काल के काल ही यथायोग्य भिक्षादि क्रियाओं में प्रवृत्ति करे। टीका- जब साधु भिक्षाचरी के लिए तैयार हो तब उस के लिए उचित है कि, वह सब से पहले ही इस बात का ज्ञान प्राप्त करे कि, गाँव में आम तौर पर भोजन का एवं साधुओं की भिक्षा का समय कब होता है ? अस्तु , ठीक-ठीक पता चल जाने पर काल के अनुसार भिक्षाचरी के लिए गाँव में जाए और जब वह जाने कि अब गोचरी का समय नहीं रहा हैस्वाध्याय आदि का समय आ गया है तो तुरंत अपने स्थान पर वापिस लौट आए ताकि स्वाध्याय आदि आवश्यक क्रियाओं में किसी प्रकार का विघ्न न पड़े। ___संक्षिप्त शब्दों में कहने का सार यह है कि साधु क्रिया-वादी है / उसके सारे दिनरात नियत-क्रियाओं के करने में ही जाते हैं / अस्तु, साधु जो समय जिस क्रिया का हो उस समय उसी क्रिया को करे, दूसरी को नहीं। क्रियाओं के क्रम में फेर-बदल करने से बड़ी बड़ी हो जाती है। वह मनुष्य ही नही जो समय का पाबंद नहीं है। टीकाकार श्री हरिभद्र सरि' भी इसी क्रिया की पाबंदी के लिए स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि-"भिक्षावेलायां भिक्षां समाचरेत, स्वाध्यायादिवेलायां स्वाध्यायादीनीति भिक्षा के समय भिक्षा के लिए जावे और स्वाध्याय आदि के समय स्वाध्याय आदि करे।" इसी कारण से सूत्रकर्ता ने काल को कारणभूत मान कर 'कालेण' यह तृतीयान्त पद दिया है। उत्थानिका- अब, अकाल में भिक्षा के लिए जाने से क्या दोष है ? यह कहा जाता है अकाले चरसि भिक्खू, कालंन पडिलेहसि। अप्पाणंच किलामेसि,संनिवेसंचगरिहसि॥५॥ अकाले चरसि भिक्षो!, कालं न प्रतिलिखसि। आत्मानं च क्लमयसि, संनिवेशं च गर्हसे॥५॥ . पदार्थान्वय:- भिक्खू-हे मुने ! तू अकाले-अकाल में चरसि-गोचरी के लिए जाता है, किन्तु कालं-भिक्षा के काल को न पडिलेहसि-नहीं देखता है अत: अप्पाणं-अपनी आत्मा को किलामेसि-पीड़ा देता है च-और भगवान् की आज्ञा भङ्ग करके, दैन्यवृत्ति से संनिवेसं-ग्राम की भी गरिहसि-निन्दा करता है। मूलार्थ- हे मुने! तुम पहले तो अकाल में भिक्षा के लिए जाते हो-भिक्षाकाल को भली भाँति जानते नहीं हो और जब भिक्षा नहीं मिलती है, तब यों अपने आपको दुःखित करते हो; भगवदाज्ञा भङ्ग करके व्यर्थ ही गाँव की निन्दा करते हो। टीका- एक मुनि भिक्षा-काल को अतिक्रम करके भिक्षार्थ गाँव में गए। असमय भिक्षा कहाँ मिलनी थी, बस मन ही मन गुन-गुनाते लौट आए / म्लानमुख देखकर किसी अन्य पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 175
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy