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________________ का घातक हो जाती है। दूसरे यह भी बात है कि, इस प्रकार भोजन-पात्रों के सने रहने से साधु की अयोग्यता का प्रदर्शन होता है। साधु की तरफ से लोगों के मन में घृणा के भाव पैदा होने लग जाते हैं। क्यों न पैदा हों, है भी तो यह एक महा गन्दापन / सूत्र में जो भोजन के विशेषण रूप में "गन्ध' शब्द आया है, वह उपलक्षण है। अतः गन्ध से गन्ध के सहचारी जो रूप, रस आदि हैं, उन को भी ग्रहण कर लेना चाहिए। __उत्थानिका- अब सूत्रकार विशेष विधि के विषय में कहते हैंसेज्जा निसीहियाए, समावन्नो अगोयरे। अयावयट्ठा भुच्चाणं, जइ तेणं न संथरे॥२॥ शय्यायां नैषेधिक्याम्, समापन्नश्च गोचरे। अयावदर्थं भुक्त्वा , यदि तेन न संस्तरेत्॥२॥ पदार्थान्वयः- सेज्जा-उपाश्रय में अथवा निसीहियाए-स्वाध्याय करने की भूमि में बैठा हुआ साधु गोयरे-गोचरी के लिए समावन्नो-गया हुआ (आहार लाया) अ-परन्तु अयावयट्ठाअपर्याप्त आहार भच्चाणं-भोगकर जड़-यदि तेणं-उस आहार से न संथरे-निर्वाह न हो सके तो फिर-('आहार के लिए जाए' यह अग्रिम सत्र में कहते हैं)। मूलार्थ- उपाश्रय में अथवा स्वाध्याय करने के स्थान में बैठा हुआ गोचरप्राप्त साधु, अपर्याप्त आहार भोगकर यदि उस आहार से न सरे तो फिर (आगे का विषय अगले सूत्र में देखो)। टीका- कोई भावितात्मा साधु , उपाश्रय में वा स्वाध्याय-भूमिका में शान्त-चित्त से धार्मिक क्रियाएँ करता हुआ बैठा है। उसी समय गोचरी का समय आया जानकर गोचरी के लिए गया और अपने मन से ठीक प्रमाणोपेत आहार लाया। गुर्वाज्ञा मिलने पर उन्हीं पूर्व स्थानों में भोजन करने लगा, परन्तु आहार जितना चाहिए था, उतना न मिलने के कारण भली-भाँति उदरपूर्ति न हुई। अतः यदि अपर्याप्त आहार से अच्छी तरह निर्वाह न हो सके तो फिर साधु दोबारा विधिपूर्वक आहार लेने के लिए जा सकता है। यह जानने का कथन अग्रिम सूत्र में सूत्रकार स्वयं करेंगे। सूत्रकर्ता ने जो 'अयावयट्ठा' पद पढ़ा है। उसका व्युत्पत्ति सिद्ध स्पष्ट अर्थ यह है कि 'न यावदर्थं अयावदर्थम्- अर्थात् भूख मिटाने के लिए जितना आहार उपयुक्त होना चाहिए, उतने आहार का न मिलना।' बात यह है कि साधु को थोड़ा-सा आहार मिले तो कोई हरज नहीं है। भले ही भूखा रहना पड़े, साधु थोड़ा ही खाकर अपना निर्वाह चला लेते हैं। परन्तु कभी ऐसा अवसर होता है कि भूख असह्य हो जाती है। कितना ही क्यों न मन को समझाया जाए, परन्तु मन ही नहीं मानता। ऐसी अवस्था प्रायः रोगियों, तपस्वियों तथा नवदीक्षितों की होती है। अस्तु, शास्त्रकार ने इसी आकस्मिक बात को लेकर इस सूत्र में प्रश्न उठाकर अग्रिम सूत्र में दोबारा भिक्षा की आज्ञा देकर समाधान किया है। ___ उत्थानिका- अब सूत्रकार, दोबारा गोचरी करने की आज्ञा देते हैंतओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेसए। विहिणा पुव्वउत्तेण, इमेणं उत्तरेण य॥३॥ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 173
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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