________________ अह पिंडेसणा पंचमं अज्झयणं विइयो उद्दसो अथ पिण्डैषणाध्ययने द्वितीय उद्देशः उत्थानिका- प्रथम उद्देश में जो उपयोगी विषय छोड़ दिया गया है, वह अब इस द्वितीय उद्देश में बतलाया जाता है-अब सूत्रकार, जिस पात्र में आहार करे, उस पात्र को लेप मात्र पर्यन्त पोंछ लेने के विषय में कहते हैं: पडिग्गहं संलिहित्ताणं, लेवमायाइ संजए। दुगंधं वा सुगंधं वा, सव्वं भुंजे न छड्डए॥१॥ प्रतिग्रहं संलिख्य, लेपमात्रया * संयतः। दुर्गन्धं वा सुगन्धं वा, सर्वं भुञ्जीत न छर्दयेत्॥१॥ पदार्थान्वयः- संजए-यत्नवान् साधु पडिग्गह-पात्र को लेवमायाइ-लेप मात्र पर्यन्त संलिहित्ताणं-अंगुली से पोंछकर दुग्गंधं-दुर्गन्धित वा-अथवा सुगंधं-सुगन्धित पदार्थ-जो हो सव्वं-सभी को भुंजे-भोगे, परन्तु न छड्डए-किंचिन्मात्र भी न छोड़े ('णं' वाक्यलाङ्कार अर्थ में और 'वा' समुच्चय अर्थ में है)। ___ मूलार्थ- साधु जब आहार कर चुके, तब पात्र को पोंछ-पोंछ कर साफ करके रक्खे, लेश मात्र भी पात्र में न लगा रहने दे। दुर्गन्धित-सुगन्धित (अच्छा-बुरा) कैसा ही पदार्थ हो.सब का सब लेप मात्र पर्यंत खाले-छोडे नहीं। यह नहीं कि जो अच्छा हो, उसे तो खूब अच्छी तरह उँगली से पोंछकर-रगड़कर खा ले और जो खराब पदार्थ हो, उसे यों ही सिरपड़ी से आधा-पड़धा खा-पीकर फैंकता बने। टीका- इस प्रारम्भिक गाथा में यह वर्णन है कि- जब मुनि आहार करके निवृत्त हो, तब जिस पात्र में भोजन किया है, उस पात्र को अँगुली से खूब अच्छी तरह पोंछकर साफ करके निर्लेप कर दे। किंचिन्मात्र भी अन्नादि का लेप पात्र में लगा हुआ बाकी न छोड़े। इसी बात - पर अत्यधिक जोर देते हुए सूत्रकार ने सूत्र के उत्तर भागों में फिर यही बात दूसरे शब्दों में कही है कि चाहे दुर्गन्ध वाला खराब पदार्थ हो, चाहे सुगन्ध वाला अच्छा पदार्थ हो, साधु लेश मात्र भी पात्र में लगा न रहने दे। जो आहार लाया है-सब का सब खा ले, कुछ भी छोड़े नहीं। कारण कि-पात्र के लेप की बात वैसे देखने में तो बहुत साधारण-सी दिखाई देती है, पर है वास्तव में यह बहुत ही बड़ी। कभी ऐसा समय आ जाता है कि-यही छोटी-सी बात चिर-संचित संयम