________________ पंचम- भव्यात्मन् ! मेरा निर्वाह क्या पूछते हो ? मैं तो संसार से सर्वथा विरक्त जैन / निर्ग्रन्थ हूँ। मैं अपने निर्वाह के लिए किसी प्रकार की साँसारिक क्रिया नहीं करता। केवल संयम-क्रिया-पालन के लिए गृहस्थों द्वारा निःस्वार्थ बुद्धि से दिया हुआ ग्रहण करता हूँ। मैं सर्वथा स्वतंत्र हैं। मझे आहार आदि के निर्वाह के लिए किसी की अधीनता नहीं करनी होती। अतः मैंने कहा कि-मैं मुधाजीवी हूँ। अस्तु-राजा ने सब की बातें सुन कर विचार किया कि-वास्तव में सच्चा साधु यह मुधा जीवी ही है। अतः इसी से धर्मोपदेश सुनना चाहिए। राजा ने उपदेश सुना, सच्चे बैरागी का उपदेश असर करता ही है। राजा प्रतिबोध पाकर उसी निर्ग्रन्थ के पास दीक्षित हो गया और जपतप क्रियाएँ करके समय पर मुक्ति-सुख का अधिकारी बना। इस दृष्टान्त का यह मतलब है कि-साधुओ! संसार त्याग, पराधीनता से मुक्त हो कर साधु बने हो-फिर किस लिए गृहस्थों की गुलामी करते हो। पेट के लिए जाति-पाँति न बतलाओ-किसी की आधीनता न करो। जो निःस्वार्थ भाव से दे, उसी से ग्रहण करे-चाहे दे वह कैसा ही। अच्छे बुरे की परवा न करो। उद्देश-समाप्ति के इस महान् सूत्र का हृदयाङ्कित करने लायक-सर्व साधारण की समझ में आने लायक संक्षिप्त तात्पर्य है कि-गृहस्थ जो दान करे वह बिना किसी आशा के ही करे। इसी प्रकार साधु भी गृहस्थों के यहाँ से जो भिक्षा लाए वह बिना किसी आशा पर ही लाए। दोनों में निःस्वार्थता कूट-कूट कर भरी हुई होनी चाहिए। इसी में दोनों का कल्याण है। दोनों के कल्याण से संसार का कल्याण है। ___श्रीसुधर्मास्वामी जी जम्बूस्वामी जी से कहते हैं कि-हे वत्स ! श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी के मुखारविन्द से मैने जैसा अर्थ इस 'पिण्डैषणा' अध्ययन के प्रथम उद्देश का सुना है, वैसा ही मैंने तुझ से कहा है, अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा। पञ्चमाध्ययन प्रथमोद्देश समाप्त। 171 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्