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________________ जी अपना बधना-बोरिया उठा चलते बने। इस दृष्टान्त देने का मतलब है कि-हे दान वीर गृहस्थो ! इस आदर्श पर चलो। जो दान करो वह बिना किसी प्रतिफल की आशा के करो। इसी में तुम्हारा वास्तविक कल्याण है। शास्त्रकारों ने इसी दान का फल अनंतगुणा बतलाया है। मुधाजीवी का दृष्टान्त एक राजा बड़ा प्रजा प्रिय एवं धर्मात्मा था। एक दिन उसने विचार किया कि-यों तो सभी धर्म वाले अपने अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं और अपने अपने धर्म को ही अच्छा तथा मोक्षफल प्रदाता बताते हैं / परन्तु , परीक्षा करके देखना चाहिए कि वस्तुतः कौन सा धर्म अच्छा है ? धर्म के प्रवर्तक गुरु होते हैं। गुरु के अच्छे-बुरेपन पर ही धर्म का अच्छा-बुरापन है। अतः धर्म की परीक्षा के लिए गुरु की परीक्षा करनी चाहिए कि धर्मगुरु किस प्रकार का भोजन करते हैं। सच्चा गुरु वही है, जो बिना किसी आशा-अभिलाषा के नि:स्वार्थ भाव से दिया हुआ-जैसा. मिला वैसा ही आहार बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण करता है। उसी का बतलाया हुआ धर्म श्रेष्ठ होता यह विचार करके राजा ने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि मेरे देश में जितने भी भिक्षु हैं-सभी को एकत्रित करो और कहो कि राजा सब भिक्षुओं को मोदक (लडडू) वितीर्ण करेगा। राजाज्ञा होते ही सेवक सभी भिक्षुओं को बुला लाए। जिन में कार्पटिक, जटाधारी, योगी, संन्यासी, श्रमण, ब्राह्मण, निर्ग्रन्थ सभी शामिल थे। नियत समय पर राजा ने आकर पूछा कि-हे भिक्षुओ ! कृपया बतलाओ, तुम सब अपना जीवन-निर्वाह किस-किस तरह करते हो उपस्थित भिक्षुओं में से एक ने कहा-मैं मुख से निर्वाह करता हूँ। दूसरे ने कहा मैं पैरों से निर्वाह करता हूँ। तीसरे ने कहा-मैं हाथों से निर्वाह करता हूँ। चौथे ने कहा-मैं लोकानुग्रह से निर्वाह करता हूँ। पाँचवें ने कहा कि-मेरा क्या निर्वाह ! मैं तो मुधाजीवी हूँ। राजा ने कहा-आप लोगों ने क्या उत्तर दिया-मैं नहीं समझ सका, इस का स्पष्टीकरण होना चाहिए / उत्तर-दाताओं ने यथाक्रम कहना आरम्भ किया प्रथम- महाराज ! मैं भिक्षुक तो हो गया! पर करूँ क्या, पेट वश में नहीं होता। इस पेट की पूर्ति के लिए मैं लोगों को संदेश पहुँचाया करता हूँ। अतः मैंने कहा कि-मैं मुख से निर्वाह करता हूँ। मेरे धर्म में क्षुधा-निवृत्ति के लिए ऐसे काम करना निन्दित नहीं समझा जाता। द्वितीय-राजन ! मैं साधु हँ, पत्र वाहक का काम करता हूँ। गृहस्थ लोग जहाँ भेजना होता है, वहाँ पत्र देकर मुझे भेज देते हैं और उपयुक्त परिश्रम का द्रव्य दे देते हैं। जिस से मैं अपनी आवश्यकताएं पूरी करता हूँ। अतः मैंने कहा कि-मैं पैरों से निर्वाह करता हूँ। तृतीय-नरेश ! मैं लेखक हूँ। मैं अपनी सकल आवश्यकताएँ लेखन-क्रिया द्वारा पूरी करता हूँ। अतः मैंने कहा कि मैं अपना निर्वाह हाथों से करता हूँ। चतुर्थ- नरेन्द्र ! मैं परिव्राजक हूँ, मेरा कोई खास धंधा नहीं है जिससे मेरा निर्वाह हो, मैं तो अपनी आवश्यकताएँ लोगों के अनुग्रह से पूरी करता हूँ। अतः येन-केन प्रकारेण लोगों को प्रसन्न रखना मेरा काम है-इसी से मेरा निर्वाह है। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [170
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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