________________ ही दोनों सद्गति प्राप्त करते हैं अन्य नहीं। वस्तुत: वे ही दान देने वाले गृहस्थ हैं जो बिना किसी आशा के नि:स्वार्थ भाव से देते हैं। इसी प्रकार लेने में लेने वाले भी वे ही भावितात्मा साधु हैं जो निःस्वार्थ भाव से केवल संयम के निर्वाह के लिए ही लेते हैं। इन दोनों का सम्मेलन, एक महासम्मेलन है। इस सम्मेलन में वह अजब गजब की आत्म-क्रान्ति होती है जो मुमुक्ष सज्जनों का अन्तिम ध्येय-बिन्दु है। शास्त्रीय परिभाषा में ऐसे देने वाले दातार को मुधादायी और ऐसे लेने वाले साधु को मुधाजीवी कहते हैं / इन मुधादायी और मुधाजीवी के वास्तविक तत्त्व का सरल विवेचन पाठकों के हितार्थ दृष्टान्त द्वारा किया जाता है: मुधालब्ध का दृष्टान्त एक कोई परिव्राजक संन्यासी फिरता-घूमता किसी भागवत के यहाँ पहुँचा। बातचीत होने पर कहने लगा कि-भक्त ! चौमासा का समय नज़दीक है। मैं किसी योग्य स्थान पर चौमासा करने की तलाश में हूँ। यदि तुम आज्ञा दो तो तुम्हारा घर मुझे पसंद है, मैं यहीं चौमास कर लूँ। समझ लो, तुम मेरा निर्वाह कर सकते हो ? भागवत ने कहा-भगवन् ! अच्छी बात है। खुशी से चौमासा करें। यह आपका ही घर है। मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि आप जैसे त्यागियों का मेरे घर पर ठहरना होता है। परन्तु , महाराज! ठहरने के विषय में एक बात है-उसे आप स्वीकार करें तो आपका भी और मेरा भी दोनों ही का काम बने अन्यथा नहीं। वह बात यह है कि आप मेरे यहाँ आनन्द से ठहरे रहें, पर मेरे घर का कोई भी काम आप न करें। चाहे मेरा कैसा ही जरूरी काम क्यों न बिगड़ता-सँवरता हो, पर आपका उसमें किसी भी अंश में हस्तक्षेप करना ठीक न होगा। आप नि:स्पृह भाव से रहें-मुझ पर किसी प्रकार की ममता न करें। यह मैंने ठहरने ठहराने के विषय में जो कुछ बात थी, बतला दी। अब आप देख लें कैसा विचार है ? - संन्यासी ने कहा- ठीक है, ऐसा ही करूँगा। भला मैं संन्यासी तुम्हारे कामों में व्यर्थ का हस्तक्षेप करके, अपना संन्यासीपन क्यों खोने लगा? मैं कोई पगला हूँ ? तुम निश्चय रक्खो कथन के विरूद्ध कोई कार्य नहीं होगा। __ संन्यासी ठहर गया। भागवत भी संन्यासी की अशन-वसन आदि से खूब सेवा-भक्ति करने लगा। आनन्द से चौमासे का समय बीतने लगा। परन्तु एक समय की बात है। रात्रि के समय चोरों ने आकर उस भागवत का घोड़ा चुरा लिया और अधिक प्रभात जानकर बाहर किसी तालाब पर वृक्ष से घोड़ा बाँध दिया। संन्यासी जी उसी तालाब पर स्नान करने जाया करते थे। सो उस दिन वे बड़े सवेरे उठ खड़े हुए और झट सीधे तालाब पर स्नान करने चले गए / वहाँ घोड़ा बांध ही रहा था। संन्यासी जी चोरों की करतूत को ताड़ गए। संन्यासी जी ने प्रतिज्ञा को याद कर मन को बहत समझाया पर उनसे रहा नहीं गया। झट पट उल्टे पैरों भागवत के पास आए और प्रतिज्ञा-भंग से अपने मन से साफ़ बचते हुए कहने लगे कि-अहो, मैं तो तालाब पर वस्त्र भूल आया। क्या करूँ? बड़ी भूल हुई। उस वस्त्र के बिना तो काम नहीं चलेगा। भागवत सेठ ने वस्त्र लाने के लिए नौकर भेजा। नौकर ने आकर सेठ को घोड़े के विषय में कहा। सेठ सब बात समझ गया। उसने संन्यासी जी को यह कहते हुए धत् बताई किमहाराज! आप अपनी प्रतिज्ञा भंग कर चुके हैं-संन्यासी के पद से नौकर के पद पर आ गिरे हैं। अब मुझ से आपकी सेवा न हो सकेगी। ऐसी सेवा का-ऐसे दान का फल बहुत ही स्वल्प होता है। अस्तु , ऐसे महान् कार्यों का फल स्वल्प मिले, यह मुझे पसंद नहीं, विचारे संन्यासी 169 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्