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________________ वस्तुतः आहार कहना चाहिए। मंत्र, यंत्र, ज्योतिष, वैद्यक या किसी काम-काज आदि के गंदे लोभ से जो गहस्थ आहार देते हैं. उस आहार का भोजन करना तो मानों पाप का भोजन करना है। अस्तु, सूत्रकार के कथन का संक्षिप्त सार यह है कि साधु मुधाजीवी है। अतः उसका आहार मुधालब्ध-प्रासुक होना चाहिए। फिर चाहे वह आहार अरस हो-विरस हो-थोड़ा हो-बहुत हो-कैसा ही हो, वही अमृत समझ कर संयोजनादि दोषों का परित्याग कर प्रसन्नचित्त से खाए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, मुधादायी और मुधाजीवी की दुर्लभता के विषय में कहते हैं: दुलहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादाई मुहाजीवी, दोविगच्छंति सुग्गइं॥१००॥ त्ति बेमि। इय पिंडेसणाए पढमो उद्देसो समत्तो॥ दुर्लभस्तु मुधादायी, मुधाजीव्यपि दुर्लभः। मुधादायी मुधाजीवी, द्वावपि गच्छतः सुगतिम्॥१००॥ ... इति ब्रवीमि। . इति पिण्डैषणाध्ययने प्रथम उद्देशः समाप्तः॥ पदार्थान्वयः-मुहादाई-नि:स्वार्थ बुद्धि से देने वाले दातार, संसार में उ-निश्चय ही दुल्लहादुर्लभ हैं मुहाजीवी वि-नि:स्वार्थ बुद्धि से लेने वाले साधु भी दुलहा-दुर्लभ हैं, अतः मुहादाईमुधादायी और मुहाजीवी-मुधाजीवी दोवि-दोनों ही सुग्गइं-सुगति को गच्छंति-जाते हैं-प्राप्त करते हैं। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-इस संसार में, निःस्वार्थ बुद्धि से देने वाले दातार और निःस्वार्थ बुद्धि से लेने वाले साधु-दोनों ही दुर्लभ हैं। अतः ये दोनों ही सत्पुरुष उच्च-सद्गति प्राप्त करते टीका-इस गाथा में मुधादायी और मुधाजीवी की दुर्लभता का तथा उनके फल का दिग्दर्शन कराया है:-यों तो यह संसार है। इसमें दान देने वालों की और दान लेने वालों की कोई कमी नहीं है। यहाँ पर जहाँ देखो वहाँ ही देने वाले एवं लेने वाले दोनों ही व्यक्ति बहुत अधिक संख्या में मिलते हैं। परन्तु निःस्वार्थ बुद्धि से देने वालों की और नि:स्वार्थ बुद्धि से लेने वालों की ही बड़ी भारी कमी है। ऐसे व्यक्ति संसार में कहीं खोजने पर ही मिलते हैं। आशा बड़ी पापिनी है। यह दूर दूर तक पहुँची हुई है। धार्मिक आत्मोन्नति के कार्य भी इससे अछूते नहीं रह सके हैं। दान देना और दान लेना कितना पवित्र कार्य है ! पर खेद है कि इस पर भी किसी न किसी सांसारिक आशा का अपवित्र जाल पड़ ही जाता है। धन्य हैं वे देने वाले और लेने वाले, जो इस आशा के जाल से अलग हैं। जिन्हें किसी प्रकार की सांसारिक आशा नहीं है। अस्तु, ये पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [168
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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