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________________ सूचित, असूचित, आर्द्र, शुष्क आदि किसी भी प्रकार के निकृष्ट भोजन की, घृणा से 'निन्दा न करे। यदि थोड़ा आहार मिले तो इस प्रकार न कहे कि-यह तो बहुत थोड़ा आहार है। इससे मेरी पेट पूर्ति कैसे हो सकती है ? यदि असार प्रायः अधिक आहार मिले तो यों न कहे कि कितना ढेर का ढेर असार-आहार मिला है ? ऐसे असार-आहार को मैं कैसे खाऊँ ? अस्तु, मुधा-जीवी साधुको तो जो आहार मिले वह मुधालब्ध (निःस्वार्थ वृत्ति से प्राप्त) और प्रासुक होना चाहिए, उसे ही संयोजनादिदोषों को त्यागकर प्रसन्नता पूर्वक भोगे। टीका-आहार के लिए गए हुए साधु को भिक्षा में कई प्रकार के पदार्थ मिलते हैं। जैसे-अरस आहार-हिंग्वादि से असंस्कृत। विरस आहार- बहुत पुराने ओदन आदि एवं शीत पदार्थ। सूचित आहार-व्यञ्जनादि से युक्त अर्थात् मसालेदार पदार्थ। असूचित आहारव्यञ्जनादि से रहित, बिना मसाले का। आर्द्र आहार-प्रचुर व्यञ्जन वाला तर पदार्थ। शुष्क आहार-स्तोक व्यञ्जन वाला रूखा सूखा पदार्थ। मन्थु-बेरों का चून-बोरकूट। कुल्माषसिद्धमाष, यवमाष, उड़दों के बाकले आदि आदि। अस्तु, उपर्युक्त शुद्ध और शास्त्रोक्त विधि से मिले हुए पदार्थों की साधु कदापि निन्दा न करे। साधु-वृत्ति के अनुसार साधु को तो जो आहार मिलता है, वही अमृत के तुल्य है। उस पर अच्छे-बुरे का भाव लाकर राग-द्वेष आदि नहीं करना चाहिए। बहुत बार ऐसा भी हो जाता है कि-बहुत ही थोड़ा आहार मिलता है तो यह न विचार करे कि-क्या मिला है ! कुछ नहीं मिला ! भला देने वाले को देते समय लज्जा भी न आई ! यह तो दाँतों को ही लग जाएगा-पेट कैसे भरेगा ? देह रक्षा कैसे होगी ? कई बार नीरस पदार्थ बहुत अधिक मिल जाते हैं। तब यह न सोचे कि-देखो, भाग फूट गए ! कैसा आहार मिला है ! देखते ही उल्टी आती है ! थोड़ा भी तो नहीं मिला, पूरा पात्र ही भर गया। अब इतना आहार कैसे खाऊँ ? कोई-कोई आचार्य 'अप्पंवा बहु फासुअं' पद की व्याख्या 'अप्पं-वा- बहुफासुअं' पदच्छेद करके करते हैं। उनका यह आशय है कि जो साधु मुधाजीवी है, उसको थोड़ा विरस आहार परन्तु सर्वथा शुद्ध मुधालब्ध मिला है तो साधु उसकी निन्दा न करे, अपितु यह भावना करे कि-यह गृहस्थ लोग मुझ को जो कुछ भी थोड़ा देते हैं वही बहुत ठीक है। मैं तो अनुपकारी हूँ। अनुपकारी को क्या इतना आहार देना थोड़ा है ? नहीं बहुत अधिक है। अरे, अनुपकारी को तो कुछ भी नहीं मिलना चाहिए। सूत्रगत 'मुधाजीवी' और 'मुधालब्ध' शब्दों के अर्थों पर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्योंकि-शब्द भण्डार में साधु के लिए ये दो शब्द बड़े ही महत्त्व के हैं मुधाजीवी शब्द का अर्थ है-सर्वथा निदान रहित पवित्र जीवन व्यतीत करने वाला तथा अपनी जाति-कुल आदि जितलाकर आहार न लेने वाला-आदर्श साधु / वास्तव में ऐसे निःस्पृही साधु ही दुनियाँ में आकर कुछ लाभ कमा ले जाते हैं। आदर्श साधुओं की जीवन नैया जाति आदि किसी के भरोसे पर नहीं चलती। उन्हें तो अपने आप पर भरोसा है। 'मुधालब्ध' शब्द का अर्थ है-बिना किसी स्वार्थ के मिला हुआ पवित्र आहार / ऐसे शुद्ध आहार को ही 1 कोई कोई सूचित और असूचित शब्दों का क्रमशः यह भी अर्थ करते हैं कि-कह कर दिया हुआ आहार और बिना कहकर दिया हुआ आहार। यहाँ पर दाता शब्द का अध्याहार कर लेना चाहिए। 167 ] दशवैकालिकसूत्रम् .[पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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