________________ बहुल पदार्थ। ये नाम गिना दिए गए हैं। इसी तरह के अन्य पदार्थ भी मिल जाते हैं। सो इस प्रकार के भिक्षा में मिले हुए सभी पदार्थों का अंगोंपाङ्ग न्याय से परमार्थ से मोक्ष के लिए साधक मानकर प्रसन्नता से इस प्रकार भोजन करे, जिस प्रकार संसारी लोग मधु और घृत का भोजन किया करते हैं। साधु का भोजन शरीर सौन्दर्य के लिए नहीं होता बल्कि आत्म-सौन्दर्य के लिए होता है। आत्म-सौंदर्य तो तभी हो सकता है, जबकि अच्छे-बुरे पर एक-सी प्रसन्नता होनाक-भौंह सिकोड़ना न हो। साधु के लिए तो भोजन का अच्छा-बुरापन आगमोक्त विधि से लेना न लेना है। जो भोजन आगमोक्त विधि से लिया जाता है, वह अच्छा है-और जो आगमोक्त विधि से नहीं लिया जाता है, वह बुरा है। ___ऊपर के विस्तृत कथन का सारांश इतना ही है कि- साधु को साधुवृत्ति के अनुसार तिक्त आदि किसी भी प्रकार का आहार मिले,साधु उसी को मधु-घृत की तरह सुन्दर जानकर ही भोजन करे। किन्त उस आहार की निन्दादि कदापि न करे, और ना ही उसके रसका आस्वादन करे। उत्थानिका- अब सूत्रकार, युग्मगाथा द्वारा फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हैं:अरसं विरसं वावि, सूइयं वा असूइयं। उल्लं वा जइ वा सुक्कं ,मंथुकुम्मासभोयणं // 98 // उप्पण्णं नाइहीलिज्जा, अप्पं वा बहु फासुअं। मुहालद्धं मुहाजीवी, भुंजिज्जा दोसवजिअं॥९९ ॥युग्मम् अरसं विरसं वाऽ पि, सूचितं वा असूचितम्। आर्द्र वा यदि वा शुष्कम्, मन्थुकुल्माषभोजनम् // 98 // उत्पन्नं नातिहीलयेत् , अल्पं वा बहु प्रासुकम्। / मुधालब्धं मुधाजीवी, भुञ्जीत . दोषवर्जितम्॥१९॥ ___ पदार्थान्वयः- उप्पण्णं-विधि से प्राप्त किया हुआ अरसं-रसरहित आहार वाविअथवा विरसं-विरस आहार-शीत अन्नादि वा-अथवा सूइयं-व्यञ्जनादि से युक्त आहार असूइयंव्यञ्जनादि से रहित आहार वा-अथवा उल्लं- आर्द्रतर आहार वा-अथवा सुक्कं-शुष्क आहार मंथुबदरी-फल के चून का आहार कुम्मासभोयणं-उड़द के बाकलों का आहार अप्पं-थोड़ा सरस आहार वा-अथवा बहु-घणा-नीरस आहार आदि आदि कैसा ही क्यों न निन्दित आहार हो साधु उसकी नीइहीलिज्जा-निन्दा-बुराई न करे, बल्कि मुहाजीवी-जाति-कुल आदि न बताकर आहार लेने वाला अनिदान जीवी साधु मुहालद्धं-मंत्र-तंत्रादि दुष्क्रियाओं के बिना किए हुए ही मिले हुए फासुअं-प्रासुक आहार को चाहे फिर वह कैसा ही हो दोसवज्जिअं-संयोजनादि दोषों को छोड़कर भुंजिज्जा-प्रसन्नता से सेवन करे। मूलार्थ- आत्मार्थी मुधा जीवी साधु शास्त्रोक्त-विधि से प्राप्त- अरस विरस, पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [166