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________________ आहार लेने की इच्छा न करे तओ-तत्पश्चात् साहू-वह निमंत्रणा करने वाला साधु एक्कओ-स्वयं अकेला ही आलोए-प्रकाशयुक्त भायणे-पात्र में तथा जयं-यत्नपूर्वक अप्परिसाडियं-हाथ तथा मुख से न गिराता हुआ भुंजिञ्ज-शान्त भाव से भोजन करे। मूलार्थ- यदि बार बार की साग्रह-निमंत्रणा पर भी कोई साधु भोजन करने के लिए तैयार न हो, तो फिर अकेला ही प्रकाशमय-खुले-पात्र में, यत्ना पूर्वक इधर-उधर परिसाटन न करता हुआ भोजन करे। टीका- बारी-बारी से सब साधुओं को विनती कर लेने पर भी यदि साधु उससे आहार लेने की इच्छा न करे, तब उस साधु के लिए योग्य है कि वह राग और द्वेष के संकल्पविकल्पों से रहित होकर अकेला ही प्रकाशमय पात्र में आहार कर ले। किन्तु जब आहार करने लगे तब यत्नपूर्वक हाथ तथा मुख से इधर उधर न गिराता हुआ ही आहार करे, क्योंकि अयत्ना से किया हुआ आहार संयम-विराधना का हेतु बन जाता है। अतः सिद्ध हुआ कि- साधु मुख में जो ग्रास डाले वह प्रमाण का ही डाले। ऐसा न करे कि, कुछ तो ग्रास मुख में है तथा कुछ उसका भाग नीचे गिर रहा है तथा कुछ हाथ में है और कुछ नीचे गिर रहा है। इस प्रकार आहार करने में अयोग्यता पाई जाती है। सत्रकर्ता ने जो प्रकाशनीय पात्र में भोजन करना लिखा है, उसका कारण यह है कि प्रकाशनीय पात्र में ही सूक्ष्म त्रस जीव भलीभाँति देखे जा सकते हैं, अन्य में नहीं। अतः साधु को सदा भोजन करने के लिए प्रकाशप्रधान पात्र ही रखना चाहिए। . उत्थानिका- अब सूत्रकार, अच्छे-बुरे भोज्य पदार्थों के विषय में समभाव रखने के लिए कहते हैं:तित्तगंव कडुअंव कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा। एअलद्धमन्नत्थ पउत्तं , महुघयं व भुंजिज्ज संजए॥९७॥ तिक्तकं वा कटुकं वा कषायम् , अम्लं वा मधुरं लवणं वा। एतल्लब्धमन्यार्थप्रयुक्तम् मधुघृतमिव भुञ्जीत संयतः॥१७॥ पदार्थान्वयः- संजए-यत्नावान् साधु एअ-इस प्रकार के लद्धं-आगमोक्त विधि से मिले हुए अन्नत्थ पउत्तं-अन्य के वास्ते बनाए हुए तित्तगं-तिक्त व-अथवा कडुअं-कटुकं वतथा कसायं-कषाय व-तथा अंबिलं-अमल-खट्टा वा-अथवा महुरं-मधुर लवणं-क्षार आदि पदार्थों को महुघयं व-मधु-घृत की तरह प्रसन्नता के साथ भुंजिज-भोगे अर्थात् खाए। मूलार्थ- साधु, वही भोजन करे जो गृहस्थ ने अपने लिए बनाया हुआ हो और जो आगमोक्त विधि से लिया हुआ हो। चाहे फिर वह तिक्त हो, कटु हो, कषायला हो, खट्टा हो, मीठा हो, खारा हो, चाहे कैसा ही हो, उसी को बड़ी प्रसन्नता के साथ मधु-घृत के समान खाए। टीका- साधु का भोजन कुछ घर का भोजन नहीं है। वह तो भिक्षा का भोजन है। भिक्षा में सभी प्रकार के पदार्थ मिलते हैं। जैसे- तिक्त,-ऐलुक, बालुक आदि / कटुक-आर्द्रक तीमन आदि। कषाय-वल्ल आदि। अम्ल-तक्रार नाल आदि। मधुर-क्षीर मधु आदि / लवण-क्षार 165 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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