________________ साधूस्ततः प्रीतेन, निमन्त्रयेत् यथाक्रमम्। यदि तत्र केचिदिच्छेयुः, तैः सार्धं तु भुञ्जीत // 15 // पदार्थान्वयः- तओ-तत्पश्चात् साहवो-साधुओं को चिअत्तेण-प्रीतिभाव से जहक्कमयथाक्रम निमंतिज-निमंत्रणा करे, फिर जइ-यदि तत्थ-उन निमन्त्रित साधुओं में से केइ-कोई साधु इच्छिज्जा-भोजन करना चाहे तो तेहिं सद्धिं-उनके साथ भुंजए-भोजन करे। .. मूलार्थ- गुरू-आज्ञा मिलने पर साथ के साधुओं को प्रीतिपूर्वक अनुक्रमण से निमंत्रणा करे।यदि निमंत्रणा मानकर कोई प्रेमी साधु भोजन करना चाहे तो प्रसन्नतापूर्वक उनके साथ भोजन करे। टीका- आचार्य श्री जी की आज्ञा मिलने पर अपने अन्य साथी साधुओं को प्रीतिभाव से स्वयं यथाक्रम विधि से अपने लाए हुए आहार के लिए आमंत्रणा करे। 'यथाविधि' उसका नाम है- जैसे पहले सब से बड़े को आमंत्रणा करे ; फिर उससे छोटे को। अस्तु, इस प्रकार निमंत्रणा करने पर यदि कोई साधु, चाहे तो उसके साथ बैठकर भोजन कर ले, क्योंकि जब धर्म- बान्धव साथ बैठकर भोजन करना चाहें तो उनके साथ ही बैठकर भोजन करने में आत्मकल्याण है; प्रेमभाव की वृद्धि है; जैन धर्म की प्रशंसा है तथा सूत्र में जो बहु वचन सर्वनाम के साथ 'इच्छिज्जा' एकवचनान्त क्रिया-पद दिया है, वह प्राकृत-भाषा के कारण से है। प्राकृतभाषा में इस प्रकार के विपर्यय प्रायः बहुत अधिक होते हैं। इसी प्रकार 'साहवो' यह द्वितीयान्त पद भी प्राकृत भाषा के कारण से ही दिया है। उक्त गाथा से यह भली भाँति सिद्ध हो जाता है कि- जब साधु भोजन करना चाहे तब साथी साधुओं को अवश्यमेव निमंत्रित करे। बिना निमंत्रणा किए भोजन कदापि नहीं करना चाहिए। साधु होकर संविभागी न हुआ तो फिर क्या हुआ ? कुछ नहीं। साधु-संघ में संविभाग दान मुख्य है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, यदि कोई आमंत्रणा स्वीकार न करे तो फिर क्या करे ? इस विषय में कहते हैं:अह कोइ न इच्छिज्जा, तओ भुंजिज एक्कओ। आलोए भायणे साहू, जयं अप्परिसाडियं॥१६॥ अथ कोऽपि नेच्छेत्, ततो भुञ्जीत एककः। . आलोके भाजने साधुः, यतमपरिशाय्यन् // 16 // पदार्थान्वयः- अह-यदि साग्रह-निमंत्रणा करने पर भी कोइ-कोई साधुन इच्छिज्जा १नोट-संविभाग में परस्पर बाँटकर खाने में ही आत्म-कल्याण है। जब प्रेम-मूर्ति साधु ही बन गए, तो फिर अकेलेपन के भाव कैसे ? साधु वही है जो संविभागी है। आगे चलकर इसी सूत्र के नवम अध्ययन में स्वयं सूत्रकार ने कहा है कि-'असंविभागी नहु तस्स मोक्खो' जो असंविभागी है-बाँटकर - नहीं खाने वाला है; वह चाहे कि मुझे मोक्ष मिले तो उसे कदापि मोक्ष नहीं मिल सकता। मोक्ष संविभागी को ही मिलता है। (जो जिन-कल्पी मुनि असंगता की दृष्टि से असंविभागी हैं, उनके लिए यह कथन नहीं है।) अहा ! पारस्परिक प्रेम-वृद्धि का कितना ऊँचा आदर्शकथन हैं। एकलखोरे-जिह्वालोलूप-मुनि ध्यान दें- संपादक। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [164