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________________ हो, उसी का नाम जिन-संस्तव है। अतएव आहार करने से पहले 'जिनसंस्तव' वा 'स्वाध्याय' अवश्यमेव करना चाहिए , जिससे स्वाभाविकता से ही आहार करने में विलम्ब हो जाए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, विश्राम लेते हुए क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं :वीसमंतो इमं चिंते, हियमढें लाभमट्ठिओ। जइ मे अणुग्गहं कुज्जा, साहू हूज्जामि तारिओ॥१४॥ विश्राम्यन्निमं चिन्तयेत् , हितमर्थं लाभार्थिकः। यदि मेऽनुग्रहं कुर्यात् , साधुर्भवामि तारितः॥१४॥ __ पदार्थान्वयः- लाभमट्ठिओ-निर्जरा के लाभ का अर्थी साधु वीसमंतो-विश्राम करता हुआ हियमढें-हित के वास्ते इमं-यह चिंते-चिन्तन करे कि जइ-यदि कोई साहू-साधु मे-मुझ पर आहार लेने का अणुग्गह-अनुग्रह कुज्जा-करे तो मैं तारिओ-भव-सागर से तारा हुआ हुज्जा-हो जाऊँ। मूलार्थ- निर्जरारूप महान् लाभ की अभिलाषा रखने वाला साधु, विश्राम करता हुआ कल्याण के लिए यह विचार करे कि- यदि कोई कृपालु, मुनि, मुझ पर कुछ आहार लेने की कृपा करे तो मैं संसार-सागर से तारा हआ हो जाऊँ। : टीका- विश्राम लेता हुआ साधु , निर्जरारूप अक्षय-लाभ के लिए तथा परस्पर के हित-प्रेम के लिए वा कल्याण के लिए अपने हृदय में विचार करे कि- यदि ये संगी साधु मुझ सेवक पर कुछ अनुग्रह करें तो मैं इनको यह लाया हुआ सब आहार दे दूं। ऐसा करने से मैं इन कृपा-सिन्धु साधुओं द्वारा संसार-सागर से अनायास ही पार हो जाऊँगा। अस्तु , ऐसा विचार ,करके प्रथम तो आचार्य श्री जी से आमंत्रणा करे। यदि वे स्वयं ग्रहण न करें तो फिर उनसे कहे कि हे भगवन् ! अगर आप नहीं लेते तो अन्य मुनिवरों को दे दीजिए। यदि आचार्य कहें कि तुम स्वयं आमंत्रणा करो तो फिर 'स्वयं आमंत्रणा करे'। (यह अग्रिम सूत्रों में कहा जा रहा है)। इस कथन का यह भाव है कि- साधओं को आहार-पानी परस्पर आदान-प्रदान करके प्रेमपूर्वक ही करना चाहिए। इस प्रकार परस्पर दान करने के सूत्रकार ने दो फल प्रतिपादन किए हैं- एक तो निर्जरा और दूसरे परस्पर प्रेमभाव उत्पादन करना तथा सहानुभूति दिखलाना। अतएव अन्य साधुओं को आहार की आमंत्रणा सच्चे दिल से अपना कल्याण समझ कर करनी चाहिए। यह नहीं कि योंही ऊपर के मन से कुछ कहा, कुछ न कहा और झट आमंत्रणा के कर्त्तव्य से हलके हुए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, आमंत्रणा करने पर यदि कोई साधु आमंत्रणा स्वीकार करे तो क्या करे ? यह कहते हैं:साहवो तो चिअत्तेण, निमंतिज जहक्कम। जइ तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए॥१५॥ 163 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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