________________ भिक्षा-वृत्ति सर्वथा पाप से रहित उपदेशित की है। जैन साधुओं की भिक्षा वृत्ति किसी को कष्टकारी न होने से पूर्ण रूपेण पवित्र होती है। इसी भिक्षा वृत्ति का उद्देश्य और कुछ नहीं हैयह केवल अपने शरीर के निर्वाह के लिए ही है। इसके द्वारा साधु अपने शरीर की पालना सम्यक् प्रकार से कर सकता है। . अब यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि-साधु उक्त वृत्ति द्वारा अपने इस अपावन शरीर की रक्षा किस लिए करता है ? क्या साधु भी शरीर के मोह में फँसा हुआ है ? क्या वह भी गृहस्थों की तरह मरने के डर से शरीर-रक्षा की झंझटें करता है ? उत्तर में कहा जाता है कि-शरीर-मोह की या मरने से डरने की कोई बात नहीं है। साधु तो जिस दिन से साधु होता है, उसी दिन से मौत से मोरचा लगा देता है, फिर मरने का डर कैसा ? साधु , जो भिक्षा द्वारा शरीर-रक्षा करता है, वह मोक्ष के साधन जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप तीन रत्न हैं, उनकी सम्यक् साधना के लिए करता है। शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' उत्थानिका- अब सूत्रकार, जब ध्यान में उक्त प्रकार से चिन्तन कर लेने के पश्चात् तब फिर क्या करे ? इस विषय में कहते हैं:णमुक्कारेण पारित्ता, करित्ता जिणसंथवं। सज्झायं पट्टवित्ताणं, वीसमेज खणं मुणी॥१३॥ नमस्कारेण पारयित्वा, कृत्वा जिनसंसत्वम्। स्वाध्यायं प्रस्थाप्य, विश्राम्येत् क्षणं मनिः॥९३॥ पदार्थान्वयः-णमुक्कारेण-नमस्कार-मंत्र से पारित्ता-कायोत्सर्ग को पार कर जिणसंथवं-जिनसंस्तव-अर्थात् 'लोगस्स उज्जोयगरे' आदि जिनसंस्तव को करित्ता-पढ़ कर, और सज्झायं-स्वाध्याय को पट्टवित्ताणं-संपूर्ण करके मुणी-साधु खणं-क्षणमात्र वीसमेजविश्राम ले। - मूलार्थ-इस प्रकार विचारणा के बाद साधु, नमस्कार-मंत्र से'नमो अरिहंताणं' के पाठ से कायोत्सर्ग-ध्यान को पारे (अपनाए)। ध्यान पारकर(अपनाकर)जिनसंस्तव अर्थात् 'लोगस्स' पढ़े। फिर सूत्र-स्वाध्याय पूर्ण करके कुछ देर विश्राम करे। टीका-जब साधु कायोत्सर्ग को पारे (अपनाकर), तब मुख से 'नमोअरिहंताणं' पद पढ़कर पारे / ध्यान पारणे के बाद फिर जिनसंस्तव-लोगस्स उज्जोयगरे-इत्यादि स्तव संपूर्ण पढ़े। पश्चात् सूत्र की गाथाओं का स्वाध्याय आरम्भ करे, जिससे एक माँडले पर बैठने वाले मुनिगण एकत्रित हो जाएँ तथा जो अन्य मुनि आते जाएं, वे भी जिन-संस्तव वा सूत्र का स्वाध्याय आरम्भ करें। स्वाध्याय पूर्ण कर चुकने के बाद थोड़ी देर विश्रान्ति लें यानि आराम करें। कारण कि, अति शीघ्रता से किया हुआ आहार भलीभाँति शरीर की रक्षा नहीं कर सकता, प्रत्युत शरीर में एक प्रकार की व्यथा उत्पन्न कर देता है। उक्त विधि से किया गया आहार अपने अभीष्ट की सिद्धि करने में सम्पूर्णतया सहायता करेगा, इसलिए मुनि को उक्त विधि से विश्रान्ति लेकर ही आहार करना चाहिए तथा जो सत्र में 'जिणसंथवं'-'जिनसंस्तव' का पाठ करना लिखा है, उसका अर्थ परम्परा से 'लोगस्स उज्जोयगरे' करते चले आए हैं, परन्तु जिन गाथाओं में श्री भगवान् की स्तुति -पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [162