________________ न सम्यगालोचितं भवेत्, पूर्वं पश्चाद्वा यत्कृतम्।। पुनः प्रतिक्रामेत् तस्य, व्युत्सृष्टश्चिन्तयेदिदम् // 91 // पदार्थान्वयः जं-जो अतिचार सम्म-सम्यक् प्रकार से आलोइअं-आलोचित न हुजान किया गया हो व-अथवा पुट्विं-पूर्व कर्म, तथा पच्छा-कडं-पश्चात्-कर्म-विपर्यय हो तस्सउसको पुणो-फिर पडिक्कमे-प्रतिक्रम करे, वोसट्ठो-कायोत्सर्ग में इमं-यह चिंतए-चिंतन करे। ___ मूलार्थ-जिन सूक्ष्म अतिचारों की सम्यक् प्रकार से आलोचना न हुई हो और जो पूर्व-कर्म तथा पश्चात्-कर्म आगे पीछे कहे गए हों, उनका फिर प्रतिक्रमण करे और दोबारा कायोत्सर्ग करके उसमें अग्रिम सूत्रोक्त विचारों का चिंतन करे। टीका- यदि अनाभोगपन से-अज्ञान से-वा स्मृति के ठीक न होने से सम्यक्तया अतिचारों की आलोचना न की जा सकी हो। जैसे-पूर्व-कर्म पीछे वर्णन किया गया और पश्चात्कर्म पहले वर्णन किया गया अर्थात् जो पहले दोष लगा हो उसे पीछे और जो पीछे दोष लगा हो उसे पहले वर्णन कर दिया हो, तो उस आलोचक साधु का कर्तव्य है कि, वह फिर दोबारा सूक्ष्म अतिचारों की स्मृति के लिए 'इच्छाकारेणं' और 'तस्सोत्तरीकरणेणं' इत्यादि सूत्र पढ़कर 'गोयरचरिआए' इत्यादि सूत्र का ध्यान करे और उसमें विस्मरण हुए अतिचारों का चिंतन करे। कारण कि, जब सम्यक् प्रकार से चिन्तन किया जाएगा. तभी सर्व प्रकार से अतिचारों का स्मरण किया जा सकेगा, अन्यथा नहीं। सम्यक्-चिन्तन ही वास्तव में सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। यह स्मरण रहे कि जैसा चिन्तन ध्यानावस्था में किया जा सकता है वैसा बिना ध्यानावस्था के प्रायः नहीं किया जा सकता, क्योंकि ध्यानावस्था में चित्त-वृत्तियाँ चंचलता छोड़कर स्थिर हो जाती हैं। चित्त-वृत्तियोंकी स्थिरता में ही सभी सद्गुण संनिहित हैं। . उत्थानिका- अब सूत्रकार, ध्यानसम्बन्धी विचारणा के विषय में कहते हैं: अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया। मुक्खसाहणहेउस्स , साहुदेहस्स धारणा // 12 // अहो.. जिनैरसावद्या, वृत्तिः साधूनां देशिता। मोक्षसाधनहेतोः , साधुदेहस्य धारणाय // 12 // - पदार्थान्वयः- अहो-आश्चर्य है कि जिणेहि-तीर्थंकर देवों ने साहूणा-साधुओं के लिए असावजा-असावद्य-पापरहित वित्ति-गोचरीरूप वृत्ति देसिया-दिखलाई है-बतलाई है,जो मुक्खसाहणहेउस्स-मोक्ष-साधन के कारणभूत साहुदेहस्स-साधु के शरीर को धारणा-धारण करने के लिए-पोषण करने के लिए है। मूलार्थ-महान् आश्चर्य है कि, तीर्थंकर देवों ने साधुओं के लिए निरवध पाप रहित-उस गोचरी रूप वृत्ति का उपदेश किया है, जो मोक्ष के साधन ज्ञान-दर्शन-चारित्र हैं, तत्कारणभूत साधु के शरीर को धारण करने के लिए होती है। टीका- साधु ध्यान में इस प्रकार विचार करे कि- अहो ! आश्चर्य है, श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने तथा राग-द्वेष को जीतने वाले सभी तीर्थंकर देवों ने साधुओं की 161 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्