________________ कारण से सूत्रकर्ता ने 'एवं' शब्द का प्रयोग किया है; क्योंकि-'एवं' शब्द अवधारण अर्थ में व्यवहृत है। उत्थानिका- कायोत्सर्ग पार लेने के बाद फिर क्या करना चाहिए ? अब इस विषय में कहा जाता है:उज्जुपन्नो अणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेयसा। अलोए गुरुसगासे, जं जहा गहिअं भवे॥९०॥ ऋजुप्रज्ञोऽद्विग्नः , अव्याक्षिप्तेन चेतसा। आलोचयेद् गुरुसकाशे, यद् यथा गृहीतं भवेत्॥१०॥ पदार्थान्वयः- उज्जुपन्नो-सरल बुद्धि वाला अणुव्विग्गो-उद्विग्नता-रहित मुनि जं-जो पदार्थ जहा-जिस प्रकार से गहिअं-ग्रहण किया भवे-हो, उसको उसी प्रकार से अव्वक्खित्तेणअव्याक्षिप्त चेयसा-चित्त से गुरुसगासे-गुरु के समीप आलोए-आलोचना करे। ___ मूलार्थ- सरल-स्वभावी एवं व्यग्रता-रहित साधु, जो पदार्थ जिस रूप से ग्रहण किया हो उसकी उसी रूप से स्थिरचित्त होकर गुरू श्री के समक्ष आलोचना करे। टीका- जब ध्यान पार ले, तब कपटरहित होने से सरल बुद्धि वाला तथा क्षुधा आदि के जीतने से प्रशान्त चित्त वाला साध अव्याक्षिप्तचित्त से अर्थात स्थिर चित्तपूर्वक, चंचलता आदि अवगणों को दर करके गरु के समक्ष सभी ध्यान में स्मरण किए हए अतिचारों को निवेदन करे। यानि जिस प्रकार अन्न-पानी ग्रहण किया गया हो, उसी प्रकार गुरुदेव के समक्ष प्रकट करे, क्योंकि जब गुरु के पास भिक्षाचरी विषयक सर्व प्रकार से आलोचना, कर ली जाएगी, तब गुरुदेव किसी अन्य साधु को उस घर पर, जिस घर से आहार लाया हो, जाने की आज्ञा प्रदान नहीं करेंगे। जब गुरु को पता ही नहीं होगा, तो फिर वे अन्य मुनियों को 'अमुक घर पर मत जाना' इस प्रकार कैसे कह सकेंगे। अस्तु, अन्ततोगत्वा इसका यह परिणाम निकलेगा किप्रत्येक मुनि के एक ही घर में पुनः-पुनः भिक्षा के लिए जाने से जिन शासन की लघुता और मुनियों पर गृहस्थों की अश्रद्धा उत्पन्न हो जाएगी। अतएव गुरु श्री के पास भिक्षाचरी के विषय में आलोचना करनी युक्ति युक्त सिद्ध होती है। आलोचना करने से दूसरा यह भी लाभ है कि भूल या अन्य किसी प्रकार से लगे हुए दोषों की यथावत् निवेदना करने की हृदय में सरलतानिष्कपटता-आती है। जब हृदय में निष्कपटता ने स्थान पा लिया तो फिर कहना ही क्या है ? जैसी आत्म-विशुद्धि निष्कपट मनुष्य की होती है, वैसी अन्य किसी की नहीं होती। संयमी के लिए आत्म-विशुद्धि सब से बड़ा लाभ है। इसी लाभ के लिए संसार छोड़कर साधुपद ग्रहण किया जाता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, यदि आलोचना सम्यक्तया न हो तो फिर क्या करना चाहिए ? इसके विषय में कहते हैं:न सम्ममालोइअं हुज्जा, पुव्विं पच्छा व जंकडं। पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसट्टो चिंतए इमं॥११॥ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [160