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________________ भिक्षा लिए हुए उपाश्रय में आकर सब से प्रथम भोजन करने की भूमि की खूब देख-भालकर प्रतिलेखना करे; क्योंकि भोजन करने की भूमि सर्वथा शुद्ध और जीव-रहित होनी चाहिए तथा सूत्र में जो 'सपिण्डपात' शब्द आया है, उसका यह भाव है कि साधु शुद्ध आहार को लेकर उपाश्रय में आकर भोजन योग्य भूमि को देखे। यथा च टीका-'सह पिण्डपातेन विशुद्ध समुदानेनागम्य' इत्यादि। सूत्रगत 'उन्दुक' शब्द का अर्थ यहाँ बहुत से 'स्थण्डिल भूमि' करते हैं, परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं। यहाँ 'उन्दुक' शब्द का अर्थ भोजन करने की भूमिका ही है, क्योंकि अर्द्ध-मागधी कोष के पष्ठ 16 पर हआ लिखा है कि-'उंडयं-न-(उन्दक) भोजन करवानुं स्थान'। यद्यपि उंडग'-पु०-शब्द के अर्थ उक्त कोष में मूत्र पात्र वा मूत्र करने का स्थान लिखे हैं, किन्तु उक्त शब्द का संस्कृत रूप न देकर उसे देशी प्राकृत शब्द का रूप माना गया है। अपितु 'उंडुय' शब्द नपुंसक लिङ्गीय मानकर फिर उसका 'उन्दुक' इस प्रकार का संस्कृत रूप देकर उसका अर्थ भोजन करने का स्थान लिखा है-सो इस स्थल पर यही अर्थ युक्ति युक्त सिद्ध होता है। कारण कि, सब से पहले भोजन करने की भूमि को देख कर ही, फिर वहाँ बैठकर और क्रियाएँ की जा सकेंगी, न कि भोजन लाते ही सब से पहले स्थण्डिल जाने की भूमि को देखना चाहिए। भला स्थण्डिल-भूमि का और भोजन-क्रिया का क्या सम्बन्ध ? भोजन क्रिया के लिए तो भोजन-भूमि ही देखना ठीक है। वृत्तिकार भी इसी भोजन-भूमि के अर्थ से सहमत हैं / वे अपनी इसी सूत्र की वृत्ति में स्पष्टतः लिखते हैं कि-'तत्र बहिरेवोन्दुकं स्थानं प्रत्युपेक्ष्य विधिना तत्रस्थः पिण्डपातं विशोधयेदिति सूत्रार्थ:-उपाश्रय से बाहर ही भोजन करने की भूमि को देखकर फिर विधि से वहाँ पर बैठकर आहार-पानी की विशुद्धि करे। अस्तु, सभी प्रकार से इस स्थान पर 'उन्दुक' शब्द से भोजन करने की भूमि' यह अर्थ करना ही सिद्ध होता है। उत्थानिका-अब उपाश्रय में गुरु के समीप किस प्रकार प्रवेश करना चाहिए ? इस विषय में कहा जाता है: विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी। इरियावहियमायाय , आगओ अ पडिक्कमे // 48 // विनयेन प्रविश्य, सकाशे . गुरोर्मुनि। ईर्यापथिकीमादाय , आगतश्च . प्रतिक्रामेत्॥८८॥ पदार्थान्वयः- सदा विधि-निषेध के सिद्धान्तों को मनन करने वाला मुणी-मुनि विणएणं-विनय से पविसित्ता-उपाश्रय में प्रवेश करके गुरुणो-गुरु श्री के सगासे-समीप इरियावहियं-ईर्यापथिक सूत्र को आयाय-पढ़ करके अ-तथा आगओ-गुरु श्री के पास आया हुआ पडिक्कमे-कायोत्सर्ग करे। मूलार्थ- साधु, महान् विनय-विधि के साथ 'मत्थएण वंदामि' कहता हुआ उपाश्रय में प्रवेश करे और गुरुदे के समीप आकर 'इरियावहियाए' संपूर्ण सूत्र को पढ़कर कायोत्सर्ग करे। टीका- इस सूत्र में वर्णन है कि-जब साधु आहार लेकर उपाश्रय में गुरुदेव के समीप प्रवेश करे तब 'निस्सही निस्सही'-'नैषेधिकी नैषेधिकी' ऐसा शब्द कहे। इसका आशय पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [158
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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